Friday, September 11, 2020

|| मातृ नवमी |||| Matru Navami ||

|| मातृ नवमी ||
||  Matru Navami ||
मातृ नवमी आश्विन माह के कृष्ण पक्ष की नवमी तिथि को कहा जाता है। इस नवमी तिथि का श्राद्ध पक्ष में बहुत ही महत्त्व है। सनातन धर्म की मान्यता के अनुसार श्राद्ध करने के लिए एक पूरा पखवाड़ा ही निश्चित कर दिया गया है। सभी तिथियां इन सोलह दिनों में आ जाती हैं।
कोई भी पूर्वज जिस तिथि को इस लोक को त्यागकर परलोक गया हो, उसी तिथि को इस पक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है, लेकिन स्त्रियों के लिए नवमी तिथि विशेष मानी गई है। मातृ नवमी के दिन पुत्रवधुएं अपनी स्वर्गवासी सास व माता के सम्मान एवं मर्यादा हेतु श्रद्धांजलि देती हैं और धार्मिक कृत्य करती हैं…
मातृ नवमी के श्राद्ध की विधि इस प्रकार है : नवमी श्राद्ध में पांच ब्राह्मणों और एक ब्राह्मणी को भोजन करवाने का विधान है। सर्वप्रथम नित्यकर्म से निवृत्त होकर घर की दक्षिण दिशा में हरा वस्त्र बिछाएं। पितृगण के चित्र अथवा प्रतीक हरे वस्त्र पर स्थापित करें। पितृगण के निमित्त तिल के तेल का दीपक जलाएं, सुगंधित धूप करें, जल में मिश्री और तिल मिलाकर तर्पण करें। अपने पितरों के समक्ष गोरोचन और तुलसी पत्र समर्पित करना चाहिए।

श्राद्धकर्ता को कुशासन पर बैठकर भगवद् गीता के नवें अध्याय का पाठ करना चाहिए। इसके उपरांत ब्राह्मणों को लौकी की खीर, पालक, मूंगदाल, पूड़ी, हरे फल, लौंग-इलायची तथा मिश्री अर्पित करें। भोजन के बाद सभी को यथाशक्ति वस्त्र, धन-दक्षिणा देकर उनको विदा करने से पूर्व आशीर्वाद ग्रहण करना चाहिए।
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Wednesday, September 02, 2020

पितृ पक्ष |||| Pitru Paksha ||खोले अपने पूर्वजो के मोक्ष द्वार...

आधुनिक व्यक्ति चाहे न मानें, परन्तु यह एक सत्य है कि समाज में आज भी पितरों के दोष, भूत-प्रेतों के प्रकोप देखने को मिलते हैं। इनमें रोचक बात कभी-कभी देखने को मिलती है कि भूत-प्रेत स्वयं कहते हैं कि ‘‘हमारा उद्धार कराया जाए।’’
श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट सम्बन्ध है। पितरों के बिना श्राद्धों की कल्पना तक नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को आहार पहुंचाने का केवल-मात्र माध्यम है।
अब हमें श्राद्ध और पितरों की अलग-अलग व्यत्पत्ति और परिभाषा करनी होगी। मृत व्यक्तियों के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर, पिर्तण, पिंड, दानादि दिया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है। जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी औध्र्व दैहिक किरया कर्म सम्पन्न हो जाएं, उसी की पितर संज्ञा हो जाती है।
जिस प्रकार देवलोक, मृत्यु लोकादि है। उसी प्रकार पितृलोक भी है।
पितरों के सात वंश हैं। इनमें तीन अमूर्त पितृवंश है और चार मूर्तिमान है। अमूर्त पितर वैराज नामक प्रजापति की संतान है। ये सभी सन्तान लोकों को प्राप्त करने के पश्चात् योग मार्ग से भ्रष्ट हुए है। देवगण इनकी पूजा करते है। ब्रह्मा के दिन के अंत में ब्रह्मवादी रूप में प्रकट होते है। फिर सांख्ययोग का आश्रय लेकर सांख्यमत और ब्रह्म का प्रचार-प्रसार करते है। स्वयं योग-अभ्यास द्वारा आवागमन के चक्र से मुक्त होते है। इनकी एक मानसी कन्या है जिस का नाम मना है। यह हिमाचल की पत्नी और पार्वती की माता है।
सूर्य मंडल में मरीचि गर्मलोक है। वहां हविष्मान नामक पितर निवास करते है। ये क्षत्रियों के पितर है।
20 अंश रेतस् (सोम) को पितृऋण कहते हैं। 28 अंश रेतस् के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने वाले पिण्ड तथा जल आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धा नाम मार्ग का संबंध मध्याह्न काल में श्राद्ध करने का विधान है।
प्रजापति कदर्भ के लोगों में आज्यप पितर निवास करते ह। ये वैश्यों के पितर है।
ब्रह्माण्ड के ऊपर मानस लोग में ‘‘सोमप’’ नामक पितर रहते है। ये ब्राह्मणों के पितर है।
इन पितरों का सृष्टि के निर्माण-संरक्षण में महत्वपूर्ण सहयोग है। ये सृष्टि की सुव्यवस्था के लिए नियम, सिद्धांत, अचार-व्यवहार के सम्यक् प्रकार से संचालन के लिए भी देवों से पीछे नहीं है। अपने भक्तों के लिए विविध फलों को प्रदान करने की इनमें पूर्ण सामथ्र्य है।
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने इन सब प्रकार के पितरों की तुष्टि-पुष्टि के लिए श्राद्धों का निर्माण किया था। इसलिए पितर अपने विशेष दिनों में अपने वंशजों से कुछ कामनाएं रखते है। मत्स्य पुराण के दौ सौ चारवें अध्याय के श्राद्ध कल्प में भगवान मत्स्य जी राजेंद्र मनु से कहते है, ‘‘राजन्! पितर अपने लोक में स्थित हुए कथन करते है। क्या कोई हमारे वंश में ऐसा व्यक्ति उत्पन्न होगा जो शीतल जल वाली नदियों में जाकर जलान्जली देगा? दूध-मूल-फूल खाद्य सामग्रियों और तिल सहित श्राद्ध करेगा? कूप-बगीचा- सरोबर-बावड़ियों का निर्माण करोगय? सूर्य ग्रह में योगियों को हमारे निमित्त भोजन करायेगा? या कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो विद्या दान करेगा? यदि एक भी ऐसा कोई कर्म करेगा तो हमें अन्नत तृप्ति का अनुभव होगा।’’
श्राद्ध में मुख्य बात ‘‘श्राद्ध’’ की है। श्राद्ध से करने पर पितृगण तृप्त हो जाते हैं। वस्तु बहुमूल्य है या अल्पमूल्य की इसकी अपेक्षा पितृगण नहीं करते। भगवान् श्रीमदभगवद्गीता में कहते हैं-
पत्रं पुष्पं फलं तायें यो में भक्त्या प्रगच्छति।
तहदं  भक्त्युपहृतमश्नामि  प्रयतात्मनः।।
यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूं।
पितरों के इस प्रकार के कथनों से सुस्पष्ट हो जाता है कि मृत व्यक्तियों का शारीरिक सम्बन्ध हमारे से टूटने पर भी परोक्ष सम्बन्ध बना रहता है। इस सम्बन्ध के कारण पितर अपने वंशजों से कुछ इच्छा रखते है।
यदि पितरों की विशेष दिनों में श्राद्धों में कामना पूर्ति होती है तो वे भी अपने आशीर्वादों से उनको सुख-शांति प्रदान करते हैं। उन्हें प्रगतिशील बनाते हैं।
इसके विपरीत जब पितरों की कामना पूर्ति नहीं होती तो वे क्रोध में भरकर शाप देकर अपने वंशजों की सुख-शांति को नष्ट कर देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के जीवन में अभाव ही अभाव रहता है। वे कभी सुख चैन का जीवन-यापन नहीं कर सकते।
इसीलिए अनादिकाल से लेकर बीसवीं शताब्दी तक श्राद्ध कर्म करने की परम्परा अक्षुण्ण चली रही। परन्तु अब इस कर्म को व्यर्थ और पाखण्ड समझा जाने लगा है। इसी कारण हमारे जीवनों में विविध समस्याएं, संकट, अभाव उत्पन्न हो गये। इनमें कुछ समस्याएं, संकट और अभव ऐसे होते हैं, जिनका कुछ भी कारण हमें समझ मंे नहीं आता।
इस बात को अब आधुनिक व्यक्ति चाहे न माने, परनतु यह एक सत्य है कि समाज में आज भी पितरों के दोष, भूत-प्रेतों के प्रकोप देखने को मिलते हैं। इनमें रोचक बात कभी-कभी देखने को मिलती है कि भूत-प्रेत स्वयं कहते हैं ‘‘कि हमारा उद्धार कराया जाए।’’
आयुः  पुत्रान्यशः  स्वर्ग  कीर्तिपुष्टि  बलंश्रियम्।
पशूनसौख्यम् धनं धान्यं प्राप्नुयात्पित् पूजनात्।।
पितरों की पूजा करने से आयु पुत्र, यश, स्वर्ग कीर्ति पुष्टिबल, लक्ष्मी पशु, धान्य प्राप्त होते हैं। मृत व्यकित्यों का श्राद्ध तर्पण नहीं कराने से उनसे पितृगण सदा असंतुष्ट रहते हैं और पुत्रादि को कोसते हैं।
गया आदि कितने तीर्थ स्थल इस भारत भूमि पर विद्यमान हैं। यहां भूत-प्रेत बने मृत जीवात्मओं का उद्धार कराया जाता है। इस संदर्भ में कितने समाचार समय-समय पर समाचारपत्रों मं पढ़ने को मिलते है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जिन मृत व्यक्तियों कर्म श्राद्धादि कर्मसविधिसम्पन्न होते हैं, उन्हीं की पितर-संज्ञा होती है। जब भूत-प्रेतों का उद्धार हो जाता है, तब ये भी पितरों की परिधि में आ जाते हैं। भूत-प्रेतों का व्यक्तियों को पीड़ित करने का तात्पर्य भी अपना उद्धार करवाना ही होता है।
ज्योतिष शास्त्र में कुछ ग्रह-स्थितियों से पितृदोष के स्पष्ट उल्लेख हैं। आयुर्वेद शास्त्र भी पितृदोष को मान्यता देता है। गीता में मृत प्राणी के अपने गन्तव्य तक पहुंचने के लिए देवमार्ग और पितृमार्ग कहे गये हैं। शुक्ल-पक्ष को देवपक्ष और कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष कहा गया है। चन्द्रमा को पितरों का प्रतीक माना है।
इन सब तथ्यों से सिद्ध हो जाता है कि परोक्ष रूप से पितरों का वर्तमान के मनुष्यों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। वर्तमान मनुष्य श्राद्धों के द्वारा अपने पितरों को संतुष्ट और पुष्ट करते हैं। इसके बदले में पितर श्राद्धकर्ता को सुख-शांति, सौभाग्य, ऐश्वर्य, प्रगति, धन-धान्यादि अनेक सम्पत्तियां प्रदान करते हैं।|| 
आयुः  पुत्रान्यशः  स्वर्ग  कीर्तिपुष्टि  बलंश्रियम्।
पशूनसौख्यम् धनं धान्यं प्राप्नुयात्पित् पूजनात्।।
पितरों की पूजा करने से आयु पुत्र, यश, स्वर्ग कीर्ति पुष्टिबल, लक्ष्मी पशु, धान्य प्राप्त होते हैं। 
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Saturday, August 15, 2020

भाद्रपद संक्रान्ति

भाद्रपद संक्रान्ति
 तारीख 16 अगस्त रविवार की रात्रि 7:10 पर कुंभ लग्न में प्रवेश करेगी वारा अनुसार घोरा तथा नक्षत्र अनुसार महोदरी नामक यह संक्रांति कपटी एवं दुष्ट लोगों के लिए लाभप्रद रह सकती है। 45  मुहूर्ति इस संक्रांति का पुण्य काल दोपहर 12:46 बाद प्रारंभ होगा रविवारी संक्रांति होने से राजनीतिक क्षेत्रों में अस्थिरता एवं अशांति होने के संकेत हैं , कहीं अनाज की कमी के कारण दुर्भिक्ष एवं अराजकता व्याप्त हो सकती है। राजनेताओं में परस्पर विग्रह एवं टकराव पैदा हो सकते हैं। अनाज भी तेल आदि पदार्थों में अधिक तेजी के कारण प्रजा पीड़ित रह सकती है।
 संक्रांति फल-- मेष, वृष, सिंह, तुला, वृश्चिक, मकर,   कुंभ ,मीन राशि वालों के लिए लाभप्रद रहेगी ।
 शेष राशि वालों को कष्ट रह सकता है।
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Tuesday, August 11, 2020

श्री कृष्णजन्माष्टमी

श्री कृष्णजन्माष्टमी
भाद्रपद कृष्णाष्टमी को ‘जन्माष्टमी’ उत्सव मनाया जाता है। इसी तिथि को श्री कृष्ण का मथुरा नगरी में कंस के कारागार में जन्म हुआ था। इस दिन कृष्ण जन्मोत्सव के उपलक्ष में मन्दिरों में जगह-जगह कीर्तन तथा झांकियां सजाई जाती हैं। बारह बजे रात्रि तक व्रत रखकर भगवान का प्रसाद लिया जाता है। दूसरे दिन प्रातः ही इसी उपलक्ष में ‘नन्द महोत्सव’ भी मनाया जाता है। भगवान के ऊपर  हल्दी, दही, घी, तेल आदि छिड़क कर आनन्द से पालने में झुलाया जाता है। जन्माष्टमी के दिन उपवास करने से मनुष्य सात जन्मों के पापों से छूट जाता है। 
कथा - द्वापर युग में जब पृथ्वी पाप तथा अत्याचारों के भार से दबने लगी तो पृथ्वी गाय का रूप बनाकर सृष्टिकर्ता विधाता के पास गई। ब्रह्मा जी सब देवताओं के सम्मुख पृथ्वी की दुखान्त कथा सुना गये। तब सभी देवगण निर्णयार्थ विष्णु के पास चलने का आग्रह किये और सभी लोग पृथ्वी को साथ लेकर और क्षीर सागर पहुंचे जहां भगवान विष्णु अनन्त शय्या पर शयन कर रहे थे। स्तुति करने पर भगवान की निद्रा भंग हुई तथा सबसे आने का कारण पूछा। तब दीन वाणी में पृथ्वी बोली-महाराज! मेरे ऊपर बड़े-बड़े पापाचार हो रहे हैं, इसलिये इसका निवारण कीजिये। यह सुनकर भगवान बोले-मैं ब्रजमण्डल में वसुदेव गोप की भार्या, कंस की बहन देवकी के गर्भ से जन्म लूंगा। तुम लोग ब्रजभूमि में जाकर यादवकुल में अपना शरीर धारण करो। इतना कहकर भगवान अन्तध्र्यान हो गये। वही देवता तथा पृथ्वी ब्रज में बाकर यहुकुल में नन्द-यशोदा तथा गोपियों के रूप में पैदा हुये।
कुछ दिन व्यतीत हुये, वसुदेव नवविवाहित देवी तथा साले कंस के साथ गोकुल जा रहे थे- तभी अचानक आकाशवाणी हुई कि हे कंस! जिसको तू अपनी बहन समझकर साथ ले जा रहा है, उसी के गर्भ का आठवां पुत्र तेरा काल होगा? कंस यह सुनते ही तलवार निकालकर देवकी को मारने दौड़ा। तब सवुदेव ने हाथ जोड़कर कहा- कंसराज! यह औरत बेकसूर है इसे आपका मारना ठीक नहीं। पैदा होते ही मैं आपको अपनी सब संतानें दे दिया करुंगा तो कौन आपको मारेगा? कंस उनकी बात मान गया तथा उन्हें जेल में ले जाकर बन्द कर दिया। इसी रीति से वसुदेव अपने सभी पुत्रों को देते गये तथा पापिष्ट कंस मारता गया। देवकी के सात पुत्रा मारे जाने के पश्चात् आठवें गर्भ की बात जब कंस को मालूम हुई, तब विशेष कारागार में डालकर पहरा लगवा दिया। भादों की भयानवी रात के समय जब शंख, चक्र, गदा, पद्यमधारी भगवान कृष्ण का जन्म हुआ तो चारों ओर प्रकाश फैल गया।
लीलाधारी भगवान की यह लीला देख वसुदेव-देवकी उनके चरणों में गिर पड़े। भगवान कृष्ण ने बालक रूप में होकर अपने को गोकुल नन्द घर पहुंचाने तथा वहां से कन्या लाकर कंस को सौंपने का आदेश दिया। जब वसुदेव कृष्ण को गोकुल ले चलने को तैयार हुये तभी उनके हाथ की हथकड़ियां तड़तड़ा कर टूट गई। दरवाजे अपने-आप खुल गये। पहरेदार सोये हुये नजर आये। वसुदेव ने जब कृष्ण को लेकर यमुना में प्रवेश किया तो जमुना बढ़ने लगीं, यहां तक कि गले को छू लिया। चरण चरण-कमल छूने को लालायित जमुना कृष्ण द्वारा पैर लटका देने पर बिलकुल घट गई। वसुदेव यमुना पार कर गोकुल गये वहां खुले दरवाजे तथा सोई हुई यशोदा को देखकर बालक कृष्ण को वहीं सुला दिया और सोई हुई कन्या को लेकर चले आये। जब वसुदेव कन्या लेकर आ गये तो जेल के दरवाजे पूर्ववत बन्द हो गये। वसुदेव देवकी के हाथों में हथकड़ियां पड़ गई तथा कन्या रोने लगी। जगे हुए प्रहरी गणां ने कन्या रुदन सुनकर तुरन्त कंस के पास खबर कर दी। यह सुनते ही कंस ने कन्या को लेकर पत्थर पर पटकना चाहा। लेकिन वह हाथ से छूटकर आकाश में उड़ गई तथा वहां पहुंचते ही साक्षात् देवी के रूप में होकर बोली- हे कंस! तुम्हें मारने वाला तो गोकुल में बहुत पहले ही पैदा हो चुका है। यही भगवान कृष्ण बड़े होने पर, अकासुर, पूतना तथा क्रूर कंस जैसे राक्षसों का वध कर पृथ्वी तथा भक्तों की रक्षा की।
आरती श्रीकृष्ण जी की
आरती श्री कृष्ण की कीजै।। टेक......
शंकटासुर को जिसने मारा। तृणावर्त को आय पछारा।।
उनके गुण का वर्णन कीजै।। आरती...........
यमुनार्जुन वट जिसने तारे। बकासुरादि असुर जिन मारे।।
उनकी कीरति वर्णन कीजै।। आरती..........
जिसने घेनुक प्राण निकारे।कलियानाग नाथि के  डारे।।
उसी नाथ का कीर्तन कीजै।। आरती..............
व्योमासुर को स्वर्ग पठाया। कुब्जा को जिसने अपनाया।।
दयावान के सुपरथ हूजै।। आरती...............
वृषभासुर सेजिसने मारे। चारुणादिक सभी पछारे।।
आरती यदुनन्दन की कीजै।। ..............
जिसनेकेसी केश उखारे। कंसासुर के प्राण निकारे।।
आरती कंस हनन की कीजै।। आरती....
जिसने द्रोपदि लाज बचाई। नरसीजी का भात चढ़ाई।।
आरत भक्त वक्षल की कीजै।। आरती...............
भक्तन के जो है रखवारे। रनवीरा’ मन बसनेवो।।
उनहां पर बलिहारी हुजै।। आरती....
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Sunday, August 02, 2020

रक्षा-बन्धन (श्रावणी)

रक्षा-बन्धन (श्रावणी)
यह त्यौहार सावन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह भाई बहन को स्नेह की डोर में बांधने वाला त्यौहार है। इस दिन बहन-भाई के हाथ में रक्षा बांधती है तथा मस्तक पर टीका लगाती है। रक्षा बंधन का अर्थ है (रक्षा$बंधन) अर्थात् किसी को अपनी रक्षा के लिये बांध लेना। राखी बांधते समय बहन कहती है- हे भैया! तुम्हारे शरण में हूं मेरी सब प्रकार से रक्षा करना। एक बार भगवान कृष्ण के हाथ में चोट लग गई तथा खून गिरने लगा। द्रौपदी ने जब देखा तो वह तुरन्त धोती का कोर फाड़कर भाई के हाथ में बांध दिया। इसी बन्धन के ऋणी श्रीकृष्ण ने दुःशासन द्वारा चीर खींचते समय द्रौपदी की लाज रखी थी।
मध्य कालीन इतिहास में एक ऐसी घटना मिलती है जिसमें चित्तौड़ की हिन्दूरानी कर्मवती ने दिल्ली के मुगल बादशाह हुमायूं को अपना भाई मानकर उसके पास राखी भेजी थी। हुमायूं ने कर्मवती की राखी स्वीकार कर ली और उसकी सम्मान रक्षा के लिये गुजरात के बादशाह से युद्ध किया।
कथा - एक बार युधिष्ठर ने कृष्ण भगवान से पूछा- अच्युत! मुझे रक्षा बन्धन की वह कथा सुनाइये जिससे मनुष्यों की प्रेत बाधा तथा दुःख दूर होता है। इस पर भगवान ने कहा- हे पाण्डव श्रेष्ठ! प्राचीन समय में एक बार देवों तथा असुरों में बारह वर्षों तक युद्ध हुआ इस संग्राम में देवराज इन्द्र की पराजय हुई। देवता कान्ति विहीन हो गये। इन्द्र रणस्थल छोड़कर विजय की आशा को तिलांजलि दे-देकर देवताओं सहित अमरावती में चला गया।
विजेता दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। उसने राजपद से घोषित कर दिया कि इन्द्र देव सभा में न आयें तथा देवता एवं मनुष्य यज्ञ-कर्म न करें। सब लोग मेरी पूजा करें। जिसको इसमें आपत्ति हो वह राज्य छोड़कर चला जाय। दैत्यराज की इस आज्ञा से यज्ञ, वेद पठन-पाठन तथा उत्सव समाप्त कर दिये गये। धर्म के नाश होने से देवों का बल घटने लगा। इधर इन्द्र दानवों से भयभीत हो, बृहस्पति को बुलाकर कहने लगा-हे गुरु! मैं शत्रुओं से घिरा हुआ प्राणान्त संग्राम करना चाहता हूं। होनहार बलवान होेती है, जो होना होगा होकर रहेगा। पहले तो बृहस्पति ने समझाया कि कोप करना व्यर्थ है परन्तु इन्द्र की हठवादिता तथा उत्साह देखकर रक्षा विधान करने को कहा।
श्रावण पूर्णिमा के प्रातःकाल की रक्षा का विधान सम्पन्न किया गया।
‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
उक्त मन्त्रोच्चारण से बृहस्पति (देवगुरु) ने श्रावणी-पूर्णिमा के ही दिन रक्षा विधान किया। सह धर्मिणी इन्द्राणी के साथ वृत्र संहारक इन्द्र ने बृहस्पति की उस वाणी का अक्षरण पालन किया। इन्द्राणी ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा स्वस्तिवाचन कराके इन्द्र के दांये हाथ में रक्षा की पोटली बांध दिया। इसी के बल पर इन्द्र ने दानवों पर विजय प्राप्त किया।

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Wednesday, July 29, 2020

पुत्रदा एकादशी

पुत्रदा एकादशी
यह एकादशी सावन शुक्ल पक्ष ‘पुत्रदा एकादशी’ के नाम से मनाई जाती है। इस दिन भगवान विष्णु के नाम पर व्रत रखकर पूजन करना चाहिए। तत्पश्चात् वेदपाठी   ब्राह्मणों को भोजन कराके दान देकर आशीर्वाद लेना चाहिए। सारा दिन भवान के वंदन, कीर्तन में बिताना चाहिए तथा रात्रि में भगवान की मूर्ति के पास ही सोना चाहिए। इस व्रत को रखने वाले निःसन्तान व्यक्ति को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है।
कथा - प्राचीन समय में महिष्मती नगरी में महीजित नामक राजा राज्य करते थे। अत्यन्त धर्मात्मा, शान्ति प्रिय तथा दानी होने पर भी उनके कोई सन्तान नहीं थी। इसी से राजा अत्यन्त दुःखी थे। एक बार राजा ने अपनी राज्य के समस्त ऋषियों को बुलाया तथा संतान प्राप्ति का उपाय पूछा। इस पर परम ज्ञानी लोमश ऋषि ने बताया कि आपने पिछले सावन मास की एकादशी को आपने तालाब से प्यासी गाय को पानी पीने से हटा दिया था। उसी के शाप से आपके कोई सन्तान नहीं हो रही है। इसलिये आप सावन मास की पुत्रदा एकादशी का नियम पूर्वक व्रत रखिये तथा रात्रि जागण कीजिए, पुत्र अवश्य प्राप्त होगा। ऋषि के आज्ञानुसार राजा एकादशी व्रत रहा और पुत्ररत्न प्राप्त हुआ।

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Saturday, July 25, 2020

नाग पंचमी

नाग पंचमी
श्रावण शुक्ल पंचमी को नागपंचमी होती है। इस दिन नागों की पूजा करी जाती है। इस दिन घर के दोनों कोनों में नाग की मूर्ति खींचकर अनन्तर प्रमुख महानगरों का पूजन करना चाहिए। ज्योतिष के अनुसार पंचमी तीथि के स्वामी नाग माने जाते हैं। सुंगधित पुष्प तथा दूध सर्पों को बहुत प्रिय होते हैं।
कथा - प्राचीन दन्त कथाओं से ज्ञान होता है कि किसी ब्राह्मण के साथ पुत्र वधुएं थी , श्रावण मास लगते ही 6 बहुओं भाई के साथ माइके चली गयीं परन्तु अभागी सातवीं का कोई भाई नहीं था कौन बुलाने आता? बेचारी ने अति दुखित होकर पृथ्वी को धारण करने वाले शेष नाग को भाई के रूप याद किया। करुणायुक्त, दीनवाणी को सुनकर शेषजी बृद्ध ब्राह्मण के रूप में आये, और उसे लिवाकर चले गये। थोड़ी दूर रास्ता तय करने पर उन्होंने अपना असली रूप धारण कर लिया तब फन पर बैठाकर नाग लोक ले गये। वहां वह निश्चित होकर रहने लगी। पाताल लोक में वह जब निवास कर रही थी, उसी समय शेष जी कुल परम्परा में नागों के बहुत से बच्चों ने जन्म लिया। उस नाग बच्चों को सर्वत्र विचरण करते देख शेष नाग रानी ने उस वधू को पीतल का एक दीपक दिया तथा बताया कि इसके प्रकाश से तुम अन्धेरे में भी सब कुछ देख सकोगी। एक दिन अकस्मात् उसके हाथ से दीपक टहलते हुए नाग बच्चों पर गिर गया। परिणामस्वरूप उन सबकी थोड़ी पूंछ कट गई।
यह घटना घटित होते ही कुछ समय बाद वह ससुराल भेेज दी गई जब अगला सावन आया तो वह वधू दीवार पर नाग देवता को उरेह कर उनकी विधिवत् पूजा तथा मंगल कामना करने लगी। इधर क्रोधी नाग बालक माताओं से अपनी पूंछ काटने का आदिकारण इस वधू को मारकर बदला चुकाने आये थे, लेकिन अपनी ही पूजा में श्रद्धा वनत उसे देखकर वह सब प्रसन्न हुए और उनका क्रोध समाप्त हो गया। बहनस्वरूपा उस वधू के हाथ से प्रसाद रूप में उन लोगों ने दूध तथा चावल भी खाया। नागों ने उसे सर्प कुल से निर्भय होने का वरदान तथा उपहार में मणियों की माला दी। उन्होंने यह भी बताया कि श्रावण मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी को हमें भाई रूप में जो पूजेगा उसकी हम रक्षा करते रहेंगे।
नाग पंचमी की तिथि: और शुभ मुहूर्त
नाग पंचमी की तिथि: 24 जुलाई 2020
नाग पंचमी तिथि प्रारंभ: 24 जुलाई 2020 को दोपहर 02 बजकर 34 मिनट से.
नाग पंचमी तिथि समाप्‍त: 25 अगस्‍त 2020 को दोपहर 12 बजकर 02 मिनट तक.
नाग पंचमी की पूजा का मुहूर्त: 25 जुलाई 2020 को सुबह 05 बजकर 39 मिनट से सुबह 08 बजकर 22 मिनट तक.

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Tuesday, July 07, 2020

भद्रा में शुभ कर्म त्याज्य

भद्रा में शुभ कर्म त्याज्य

 प्राचीन काल में देव और दानवों के संग्राम के अवसर पर भगवान महादेव के शरीर से भद्रा की उत्पत्ति हुई। इसका मुहँ गर्दभ के समान हैं। लम्बी इसकी पूंछ है। इसके तीन पैर हैं। इसकी गर्दन सिंह की तरह हैं। मुर्दे पर यह आरूढ़ हैं। इसके सात हाथ हैं। पेट इसका शुष्क यह महा भंयकर, विकराल मुखी और बड़े - बड़े भयानक दांतो से युक्त है। इसके साथ - साथ अग्नि की ज्वाला भी चलती है।    उत्पन्न होते ही इसने राक्षसों का संहार शुरू कर दिया। देवताओं ने प्रसन्न होकर उसे विष्टि नाम दिया और इसे करणों में स्थान दिया।
जब मेष, वृष, मिथुन, और वृश्चिक का चन्द्रमा होता है तब स्वर्ग लोक में भद्रा का निवास  माना  जाता है। कन्या, तुला, धानु, और मकर राशि के चन्द्रमा में  पाताल में भद्रा रहती है। कुंभ, मीन, और कर्क, सिंह के चन्द्रमा में भद्रा पृथ्वी पर होती है। किसी भी माह के कृष्ण पक्ष में दशमी, तृतीय, सप्तमी , और चतुर्दशी को भद्रा रहती है। प्रारम्भ की 2 तिथियों में  भद्रा तिथि की अंतिम तीस घटियों में लगती है। जबकि अंतिम 2 तिथियों प्रारम्भ की तीस घड़ी भद्रा रहती हैं। शुक्ल पक्ष में एकादशी, चतुर्थी, अष्टमी और पूर्णिमा को भद्रा जाननी चाहिए। मोटे रूप में केवल पृथ्वी की भद्रा ही शुभ कार्य मेंछोड़ने योग्य है। चाहिए। लेकिन अघिकांश पण्डितों का विचार है कि यथासम्भव सभी लोकों की भद्रा में शुभ कार्य नही किये जाने चाहिए। भद्रा में शुभ कार्य करने पर तो वह कार्य सिद्ध होगा ही नही, स्वंम भी अशुभ फ़ल प्राप्त करेगा। होली और रक्षा-बन्धान पर प्रायः भद्रा रहती है। जानकारी के अभाव मेें प्रायः गांवो में भद्रा में ही सूम जिमा देते है। और रक्षा - बन्धान कर देते है, जो बहुत ही अशुभ है।
भद्रा में अपराधाी को फ़ांसी लगाना, गिरफ्तार करना, ऊँट, घोड़े और बैल को ‘ सीधा ‘ (दमन) करना और उच्चाटन आदि तांत्रिक कर्म करना अच्छा माना जाता है। 
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Sunday, June 07, 2020

|| आज का पंचांग ||7/06/2020

|| आज का पंचांग ||
7/06/2020
शुरू कीजिए अपनी दिनचर्या गुरु ऋभुकान्त गोस्वामी जी द्वारा रचित पंचांग के साथ।
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Thursday, June 04, 2020

चंद्रमा का उपच्छाया ग्रहण 5 जून 2020

                 चंद्रमा का उपच्छाया ग्रहण 
उपच्छाया ग्रहण वास्तव में चंद्रग्रहण नहीं होता प्रत्येक चंद्रग्रहण के घटित होने से पहले चंद्रमा पृथ्वी की उपच्छाया में अवश्य प्रवेश करता है। जिसे चंद्र मालिन्य अथवा इंग्लिश में Penumbra भी कहा जाता है ।उसके बाद ही वह पृथ्वी की वास्तविक छाया दूसरे शब्दों में भूभा Umbra में प्रवेश करता है ।  तभी उसे वास्तविक ग्रहण कहा जाता है। भूभा में चंद्रमा के संक्रमण काल को चंद्र ग्रहण कहा जाता है । 
ध्यान रहे कई बार पूर्णिमा को चंद्रमा उपच्छाया उपच् प्रवेश कर ,उपच्छाया शंकु से ही बाहर निकल जाता है। इस उपच्छाया के समय चंद्रमा का केंद्र केवल धुंधला पड़ता है काला नहीं होता है इस धुंधलेपन को साधारण नंगी आंख से देख पाना संभव नहीं होता है ।धर्म शास्त्रकारों ने इस प्रकार के उप-ग्रहणों (उपच्छाया ) में चंद्र बिम्ब पर मालिन्य मात्र छाया आने के कारण उन्हें ग्रहण की कोटि में नहीं रखा ।प्रत्येक चंद्रग्रहण घटित होने से पहले तथा बाद में भी चंद्रमा को पृथ्वी की इस उपच्छाया से गुजरना पड़ता है जिसे ग्रहण की संज्ञा नहीं दी जा सकती ।
केवल चंद्रमा की आकृति थोड़ी धुंधली सी हो जाती है अतः धर्मनिष्ट एवं श्रद्धालु जनों को इन्हें ग्रहण कोटि में ना मानते हुए एवं ग्रहण संबंधी पथ्य -अपथ्य का विचार ना करते हुए पूर्णिमा संबंधित साधारण व्रत ,उपवास ,दान , सत्यनारायण व्रत आदि का अनुष्ठान करना चाहिए। 5 जून 2020 शुक्रवार को उपच्छाया चंद्रग्रहण घटित होने गठित होंगे यह उपच्छाया ग्रहण भारत में देखा जा सकेगा । इस बात का ध्यान रहे कि यह छाया ग्रह वास्तव में चंद्रग्रहण नहीं होता है ।इस उपच्छाया ग्रहण की समय अवधि में चंद्रमा की चांदनी में केवल कुछ धुंधलापन आ जाता है इस उपच्छाया ग्रहण के सूतक स्नानादि महात्म्य का विचार भी नहीं होगा ।
 इस उपच्छाया चंद्र ग्रहण का स्पर्श आदि काल इस प्रकार है स्पर्श ( Enters Penumbra) 23:16 
मध्य  ( परमग्रास) 24:55 
मोक्ष  ( Leaves Penumbra) 26:34
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Sunday, May 31, 2020

|| आज का पंचांग ||31/05/2020

|| आज का पंचांग ||
31/05/2020
शुरू कीजिए अपनी दिनचर्या गुरु ऋभुकान्त गोस्वामी जी द्वारा रचित पंचांग के साथ।
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Friday, May 29, 2020

दिनांक 29 मई 2020

|| आज का पंचांग ||
29/05/2020
शुरू कीजिए अपनी दिनचर्या गुरु ऋभुकान्त गोस्वामी जी द्वारा रचित पंचांग के साथ।
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दिनांक 29 मई 2020 
दिन शुक्रवार
विक्रम संवत 2077
शक संवत 1942
अयन उत्तरायण 
ऋतु ग्रीष्म
पक्ष  शुक्ल 
 मास ज्येष्ठ
तिथि सप्तमी
नक्षत्र: आश्लेषा 07:27 तक उपरान्त मघा
योग: व्याघात
दिशाशूल पश्चिम
सूर्य उदय 5:28
सूर्य अस्त 19:08
राहु काल प्रातः 10:30 ‌से 12:00 बजे तक 
व्रत और त्योहार भद्रा 21:55 से


Thursday, May 28, 2020

दिनांक 28 मई 2020

|| आज का पंचांग ||
28/05/2020
शुरू कीजिए अपनी दिनचर्या गुरु ऋभुकान्त गोस्वामी जी द्वारा रचित पंचांग के साथ।
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28 मई 2020 
दिन गुरुवार
विक्रम संवत 2077
शक संवत 1942
अयन उत्तरायण 
ऋतु ग्रीष्म
पक्ष  शुक्ल 
 मास ज्येष्ठ
तिथि षष्ठी
नक्षत्र: पुष्य 07:27 तक उपरान्त आश्लेषा
योग: ध्रुव
दिशाशूल दक्षिण
सूर्य उदय 5:29
सूर्य अस्त 19:08
राहु काल दोपहर 1:30 ‌से 3:00 बजे तक 
व्रत और त्योहार अरण्य षष्ठी,विन्ध्यवासिनी पूजा


Wednesday, May 27, 2020

|| आज का पंचांग ||27/05/202

|| आज का पंचांग ||
27/05/2020
शुरू कीजिए अपनी दिनचर्या गुरु ऋभुकान्त गोस्वामी जी द्वारा रचित पंचांग के साथ।
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Friday, May 22, 2020

करवीर व्रत : आप की हर इच्छा पूरी करेगा यह व्रत 23 मई 2020, शनिवार, ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा


                                  करवीर व्रत : आप की हर इच्छा पूरी                                         करेगा यह व्रत
                                                            
                                                    23 मई 2020, शनिवार, ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा




ज्येष्ठ शुक्ल प्रतिपदा को देवता के बगीचे में जाकर कनेर के वृक्ष का पूजन करें। उसको मूल और शाखा प्रशाखाओं के सहित स्नान कराकर लाल वस्त्र ओढ़ाकर गंध पुष्प धूप दीप और नैवेद्य आदि से पूजन करें ।उसके समीप सप्तधान्य रखकर उस पर केले, नारंगी ,बिजोरा और गुणक आदि स्थापित करें और
 'करवीर  विषावास नमस्ते भानुवल्लभ ।मौलीमण्डन दुर्गा आदिदेवानां सततं प्रिय।।'

 इस मंत्र से अथवा
 'ऊं आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतं मत्र्यंच हिरण्येन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन्।। 



मंत्र से प्रार्थना करके पूजा सामग्री ब्राह्मण को दे दें। फिर घर जाकर व्रत करें यह व्रत सूर्य की आराधना का है। आपद्ग्रस्त अवस्था में स्त्रियों को तत्काल फल देता है ।प्राचीन काल में सावित्री, सरस्वती ,सत्यभामा और दमयंती आदि ने इसी व्रत से अभीष्ट फल प्राप्त किया था।

Thursday, May 21, 2020

वट सावित्री पूजन

                                                     वट सावित्री पूजन




ज्येष्ठ कृष्ण अमावस्या को यह व्रत मनाया जाता है। इस दिन सत्यवान सावित्री तथा यमराज सहित पूजा की जाती है। तत्पश्चात फल का भक्षण करना चाहिए। यह व्रत रहने वाली स्त्रियों का सुहाग अचल होता है। सावित्री ने इसी व्रत के प्रभाव से अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से भी जीत लिया था।
सुवर्ण या मिट्टी से सावित्री-सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज की प्रतिमा बनाकर धूप, चंदन, दीपक, फल, रोली, केसर से पूजन करना चाहिये तथा सावित्री सत्यवान की कथा सुननी चाहिए।

वट सावित्री व्रत की तिथि: 22 मई 2020
अमावस्‍या तिथि प्रारंभ: 21 मई 2020 को रात 9 बजकर 35 मिनट से 
अमावस्‍या तिथि समाप्‍त: 22 मई 2020 को रात 11 बजकर 8 मिनट तक 

कथा - मद्र देश के राजा अश्वपति के पुत्री के रूप में सर्वगुण सम्पन्न सावित्री का जन्म हुआ। राजकन्या ने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें पतिरूप में वरण कर लिया। इधर यह बात जब ऋषिराज नारद को ज्ञात हुई तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे। आपकी कन्या ने वर खोजने में निःसन्देह भारी भूल की है। सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा भी है, परन्तु वह अल्पआयु है और एक वष्र के बाद ही उसकी मृत्यु हो जायगी।
नारद की यह बात सुनते ही राजा अश्वपति का चेहरा विवर्ण हो गया। ‘वृथा ने होहिं  देव ऋषि बानी’ ऐसा विचार करके उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया कि ऐसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं। ऐसे अल्पआयु व्यक्ति के साथ विवाह करना उचित नहीं। इसलिए कोई अन्य वर चुन लो? इस पर सावित्री बोली पित जी! आर्य कन्यायें अपना पति एक बार ही वरण करती हैं। राजा एक बार आज्ञा देता है! पंडित एक बार ही प्रतिज्ञा करते हैं! तथा कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है। अब चाहे जो हो मैं सत्यवान को ही वर स्वरूप स्वीकार करुंगी। सावित्री ने नारद से सत्यवान मृत्यु का समय मालूम कर लिया था। अन्ततोगत्वा उन दोनों को पाणिग्रहण संस्कार में बाधा गया। वह ससुराल पहुंचते ही सास-ससुर की सेवा में रात-दिन रहने लगी समय बदला, ससुर का बल क्षीण होता देख शत्रुओं ने राज्य छीन लिया। 
नारद का वचन सावित्री को दिन प्रतिदिन अधीर करता रहा। उसने जब जाना कि पति के मृत्यु का दिन नजदीक आ गया है तब तीन दिन पूर्व से ही उपवास शुरू कर दिया। नारद द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया। नित्य की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर लकड़ी काटने के लिए जब चला तो सावित्री भी सास-ससुर की आज्ञा से चलने को तैयार हो गई।
सत्यवान वन में वन में पहुंचकर लकड़ी काटने के लिए वृक्ष पर चढ़ गया। वृक्ष पर  चढ़ते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी। वह व्याकुल हो गया और वृक्ष के ऊपर से नीचे उतर आया। सावित्री अपना भविष्य समझ गई तथा अपने जंघे पर सत्यवान को लिटा लिया। उसी समय दक्षिण दिशा से अत्यन्त प्रभावशाली महिषारुढ यमराज को आते देखा। धर्मराज सत्यवान के जीवन को जब लेकर चल दिये तो सावित्री उनके पीछे चल दी। पहले तो यमराज ने उसे दैवी विधान सुनाया परन्तु उसकी निष्ठा देखकर वर मांगने को कहा।
सावित्री बोली-मेरे सास-ससुर वनवासी तथा अंधे उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें। यमराज ने कहा- ऐसा ही होगा अब लौट जाओ। यमराज की बात सुनकर उसने कहा-भ्गवान् मुझे अपने पतिदेव के पीछे-पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं। पति-अनुगमन मेरा कत्र्तव्य है। यह सुनकर उन्होंने फिर वह मांगने को कहा। सावित्री बोली-हमारे ससुर द्युत्मसेन का राज्य छिन गया है उसे वे पुनः प्राप्त कर लें तथा धर्मपरायण हों। यमराज ने यह वर भी देकर लौट जाने को कहा, परन्तु उसने पीछा न छोड़ा। अंत में यमराज को सत्यवान का प्राण छोड़ना पड़ा तथा सौभाग्यवती को सौ पुत्र होने का वरदान भी देना पड़ा।
सावित्री को यह वरदान देरकर धर्मराज अन्तर्धान हो गये। इस प्रकार सावित्री उस बटवृक्ष के नीचे आई जहां पति का मृत शरीर पड़ा था। ईश्वर की अनुकम्पा से उनमें जीवन संचार हुआ तथा सत्यवान उठकर बैठ गये। दोनों हर्ष से पे्रमालिंगन करके राजधानी की ओर गये, तथा माता-पिता को भी दिव्य ज्योति वाला पाया। इस प्रकार सावित्री सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भागते रहे।
यह व्रत सुहागिन स्त्रियों को करना चाहिए।

|| क्या कहते हैं चीन के सितारे || Kya Kehte Hain China Ke Sitare ||

|| आज का पंचांग ||21/05/2020

|| आज का पंचांग ||
21/05/2020
शुरू कीजिए अपनी दिनचर्या गुरु ऋभुकान्त गोस्वामी जी द्वारा रचित पंचांग के साथ।
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Thursday, May 07, 2020

भगवान बुद्ध प्रकटोत्सव

|| भगवान बुद्ध प्रकटोत्सव  ||
|| बुद्ध पूर्णिमा ||
आप सभी को बुद्ध पूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएं।
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Wednesday, May 06, 2020

|| भगवान नरसिंह जयंती ||

|| भगवान नरसिंह जयंती ||
आप सभी को भगवान नरसिंह जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं।
नृसिंह जयंती (6 मई बुधवार) वैशाख शुक्ल चतुर्दशी के दिन भगवान नृसिंह के रूप में अपने भक्त प्रह्लाद की रक्षा के लिए अवतार लिया। इस दिन नृसिंह जी की पूजा आदि करनी चाहिए। अपनी शक्ति के  अनुसार दान भी करना चाहिए यह शक्ति तथा पराक्रम के प्रमुख देवता है।
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Thursday, April 30, 2020

श्री गंगाजी की संक्षिप्त प्राचीन कथा

श्री गंगाजी की संक्षिप्त प्राचीन कथा


महाभारत (वनपर्व, 109वां अध्याय) जब राजा भगीरथ ने सुना कि महात्मा कपिल ने हमारे पितरों को भस्म कर दिया था और उनको स्वर्ग नहीं मिला, तब राजा ने अपना राज्य मंत्री को प्रदान करे, हिमालय पर जाकर एक सहस्त्र वर्ष पर्यन्त घोर तप किया। जब गंगा प्रकट हुई तक भगीरथ ने उनसे अनुरोध किया कि कपिल के क्रोध से 60000 गर के पुत्र, जो हमारे पूर्व पुरुष (पुरखे) थे, जल गये है। आप अपने अपने पवित्र जल से स्नान कराकर स्वर्ग प्राप्त करा दीजिये। गंगा ने इस पर उत्तर दिया कि तुम शिवजी की आराधना कर उनको प्रसन्न करो। वे ही स्वर्ग से गिरती हुए मुझको धारण कर सकते हैं-अन्य किसी की भी शक्ति से मुझे धारण करने की क्षमता नहीं है। राजा भगीरथ ने कैलाश पर्वत पर जाकर घोर तपस्या करने के बाद शिवजी को प्रसन्न किया। शिवजी ने प्रसन्न हो राजा को वर प्रदान करते हुए अपने सिर का गंगा को धारण करना स्वीकार किया।
शिवजी के यह वर प्रदान करते ही हिमाचल की ज्येष्ठ कन्या गंगा बड़े वेग से स्वर्ग से गिरी और शिवजी ने अपने सिर पर उन्हें भूषण के समान धारण किया। तीन धारावली गंगा शिवजी के सिर पर मोती की माला के समान शोभा पाने लगी। पृथ्वी पर आने के बाद गंगाजी ने राजा सगर से पूछा कि कहो राजन! अब मैं किस ओर चलूं? भगीरथ ने उस और प्रस्थान किया जिस ओर राजा सगर के 60000 पुत्र मरे थे। गंगा राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चली गयी। शिवजी गंगा को धारण करने के बाद कैलाश की ओर चले गये। राजा भगीरथ गंगा को समुद्र तक ले आए। गंगा ने समुद्र को (जिसको अगस्तमुनि ने पी लिया था) अपने जल से पूर्व कर दिया। राजा भगीरथ ने अपने पुरुषों को जल प्रदान कर उन्हें स्वर्ग पहुंचा दिया।
वाल्मीकि रामायण (बाल कांड 35वां  सर्ग)-हिमालय की पहली कन्या गंगा और दूसरी उमा है। जब देवताओं ने अपने कार्य सिद्धि के लिये हिमाचल से गंगा को मांगा तक उसने त्रैलोक्य के हित की कामना से गंगा को दे दिया। गंगा आकाश को गयी। हिमवान ने अपनी दूसरी कन्या उमा का विवाह रूद्र से कर दिया।
वाल्मीकि रामायण (बाल कांड 42वां सर्ग)-अयोध्या के राजा दिलीप के पुत्र भगीरथ ने गोकर्ण क्षेत्रा में जाकर सहस्त्र वर्ष तक तपस्या की। ब्रह्मा प्रकट हुए। भगीरथ ने यह वर गांगा कि राजा सगर के पुत्रों की भस्म गंगा के जल से बहाई जाय। ऐसा ही होगा, यह कहते हुए ब्रह्मा ने भगीरथ से कहा कि तुम गंगा को धारण करने के लिये शिवजी को  प्रार्थना करो। गंगा का आकाश से गिरना पृथ्वी से नहीं सहा जाएगा।
तब राजा भगीरथ ने एक वर्ष तक एक अंगूठे से खड़े होकर शिव की आराधना की। उपापति प्रसन्न होकर प्रकट होते हुए बोले-‘राजन् मैं अपने मस्त पर गंगा को धारण करूंगा।’ उकेस बाद गंगा विशाल रूपा और दुःसह वेग से आकाश से शिवजी के मस्तक पर गिरी। गंगा ने यह सोचा था कि वे अपने वेगवती धाराओं से शिवजी को लिये हुए पाताल लोक को चली जायंगी। किन्तु गंगा की यह धारणा गलत निकली। गंगा के इन गर्वपूर्ण विचारों को जान कार अन्तर्यामी शिव ने गंगा के गिरते ही अपनी जटा में गंगा को छिपा लिया। गंगा शिवज के मस्तक पर गिरने के बाद अनेक वर्षों तक शिवजी के जटामंडल में ही घूमती रही।
तब राजा भगीरथ ने कठोर तप करके शिवजी को फिर प्रसन्न किया। शिवजी ने हिमालय के बिन्दु सरोवर के निकट गंगा को अपने जटा से छोड़ दिया। छोड़ते ही गंगा के 7 सोते हो गये। जिन में से आह्लादनी, पावनी और नालिनी ये तीन धाराएं पूर्व की ओर तथा सुचक्षु सीता और सिंधु ये तीन धाराएं पश्चिमी दिशा में गयी। सातवीं धारा राजा भगीरथ के रथ के पीछे चली। जिस मार्ग से राजा जा रहे थे उसी मार्ग से उनके पीछे-पीछे गंगा जी समुद्र तक पहुंची। राजा भगीरथ अपने पूर्व पुरुषों (पुरखों) की भस्म के निकट गंगा को ले गये। जब गंगा ने अपने जल से उस भस् राशि का ेबहाया, तब वे सब पाप मुक्त होकर स्वर्ग को गये। भगीरथ के पीछे-पीछे चलने एवं भगीरथ द्वारा ही पृथ्वी पर आने के कारण ही श्री गंगा जी का नाम भागीरथी विख्यात हुआ।
लिंग पुराण (6वां अध्याय)-हिमालय के मैनाक और क्रौंच नामक दो पुत्रा तयो गंगा और उमा नामक दो कन्यायें थीं।
पद्य पुराण ( पाताल खण्ड 82 वां अध्याय)- वैशाख शुक्र सप्तमी को जन्हु मुनि ने गंगा जी को पी लिया था और उसी दिन पिफर अपने दाहिने कान के छिद्र से बाहर निकाल दिया। उसी से इस तिथि का नाम गंगा सप्तमी हुआ। जैसे देवताओं में विष्णु सर्वोपरि हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण नदियों में गंगा जो श्रेष्ठ है।
देवी भागवत (9वां स्कन्दधः6 से 8 अध्याय तक) तथा
ब्रह्मवैवर्त पुराण ( प्रकृति खण्ड-6-7 अध्याय)-विष्णु भगवान की तीन स्त्रियां थीं-लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा। एक समय गंगा पर विष्णु का अधिक प्रेम देखकर सरस्वती क्रोध वश गंगा के केश पकड़ने को तैयार हुई। लक्ष्मी ने दोनों का बीच बचाव किया। इस पर सरस्वती ने लक्ष्मी पर क्रोध पर शाप दिया कि तुम वृक्ष एवं नदी रूप होगी तथा गंगा को भी शाप दिया कि तुम भी नदी होकर पृथ्वीतल में जाओंगी। इस पर गंगा ने क्रोधित होकर सरस्वती अपनी कला से नदी रूप हुई जो भरतखण्ड में अपने से भारतीय कहलायी और आपव विष्णु के निकट स्थिर रहीं। गंगा जी भगीरथ के ले आने से भरतखण्ड में आयी और भागीरथी कहलायीं। शिवजी ने गंगा को अपने सिर में धारण कर लिया। लक्ष्मी जी अपनी कला से पद्यावती नदी होकर भारत में आयीं जो पद्या या पद्दा कहलायी। लक्ष्मी जी स्वयं पूर्ण अंश से विष्णु भगवान के समीप ही रहीं। उसके उपरान्त वह धर्मध्वज की कन्या होकर तुलसी नाम से प्रसि( हुई। ये सब कलियुग के पांच सहस्त्र वर्ष बीतने तक भरतखण्ड में रहेंगी। पश्चात नदी रूप त्याग कर सब विष्णु भगवान के स्थान पर चली जायेंगी।
कूर्म पुराण (ब्राह्मी संहिता, उत्तरार्द्ध, 36वां अध्याय) हिमालय पर्वत तथा गंा नदी सर्वत्र पवित्र हैं। सत्ययुग में नैमिशारण्य, त्रेता में पुष्कर, द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में गंगा जी तीर्थों में प्रधान है।
अग्नि पुराण (110वां अध्याय) गंगा सर्वदा सब जीवों को गति देने वाली है। जब तक मनुष्य की हड्डी गंगा जी में रहती है तब तक वह स्वर्ग में निवास करता है। गंगा जल के स्पर्श, पान और दर्शन तथा गंगा शब्द के उच्चारण मात्र से मनुष्य की सद्गति होती है। गंगाद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर इन तीन स्थानों में गंगा जी का मिलना दुर्लभ है।
हरिद्वार के समीप ही ऋषिकेश एवं लक्ष्मणझूला भी दर्शनीय स्थान हैं जहां समय-समय पर ऋषि, साधु, महात्मा आदि के दर्शन प्राप्त होते रहते हैं।

Wednesday, April 29, 2020

|| आज का पंचांग ||29/04/2020।।

|| आज का पंचांग ||
29/04/2020
शुरू कीजिए अपनी दिनचर्या गुरु ऋभुकान्त गोस्वामी जी द्वारा रचित पंचांग के साथ।
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Tuesday, April 28, 2020

Aaj ka Panchang

28/04/2020
शुरू कीजिए अपनी दिनचर्या गुरु ऋभुकान्त गोस्वामी जी द्वारा रचित पंचांग के साथ।
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Sunday, April 26, 2020

अक्षय तृतीया

|| अक्षय तृतीया  ||
आप सभी को अक्षय तृतीया की हार्दिक शुभकामनाएं।
वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को अक्षय तृतीया के नाम से पुकारा गया ह। इस दिन किये गये होम, जप, तप स्नान आदि अक्षय रहते हैं, ऐसी मान्यता है। यह तिथि परशुराम का जन्म दिन होने के कारण ‘परशुराम’ तीज भी कही जाती है। त्रैतायुग का आरम्भ इसी तिथि से हुआ है। इस दिन गंगा स्नान का बड़ा ही महात्म्य है। इस दिन स्वर्गीय आत्माओं की प्रसन्नता के लिए, कलश, पंशा, खड़ाऊं, छाता, सत्तू, ककड़ी, खरबूजा आदि फल, शक्कर आदि पदार्थ ब्राह्मण को दान करना चाहिए उसी दिन चारों धामों में उल्लेखनीय श्री बद्रीनाथ धाम के पट खुलते हैं। इस दिन भक्त जनों को श्री बद्री नारायण जी का चित्र सिंहासन पर रख के मिश्री तथा चने की भीगी दाल से भोग लगाना चाहिए।
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Thursday, April 16, 2020

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Thursday, April 09, 2020

लाल किताब के अनुभव सिद्ध टोटके

  1. लाल किताब के टोटके उत्तर भारत में ही नहीं, अब दक्षिण में भी बहुत प्रसिद्ध हैं। इस लाल किताब के लेखक पं. रूपचन्द्र जोशी जी ने इस पुस्तक में ज्योतिष और हस्त रेखा दोनों का फलादेश दिया है और ग्रह के कष्ट निवारण हेतु कुछ नुस्खों-टोटकों (Remedial measure) का वर्णन किया है उनमें से कुछ जो मेरे इस क्षेत्र में कई वर्षो के शोध कार्य से लाभप्रद सिद्ध हुए हैं, याने वास्तविक प्रकरणों में लाभप्रद सिद्ध हुए हैं, उन्हीं Remedial measure का वर्णय इस लेख में करूंगा जिससे जन साधारण उससे लाभान्वित हो सकें।
लाल किताब के लेखक की मान्यता है, कि जन्म कुन्डली देखते समय हमें फलादेश कहने के लिए व्यक्ति की जन्म लग्न कुछ भी हो उसके लग्न में मेष, द्वितीय भाव में वृषभ, तृतीय भाव में मिथुन, चतुर्थ में कर्क, पंचम में सिंह, छठे में कन्या, सातवें में तुला, आठवें में वृश्चिक, नवे में धनुः दसवें में मकर, ग्वारहवें में कुंभ और बारहवें में मीन राशि आदि मानकर फलादेश बताने से सटीक रहेगा। इसी प्रकार लाल किताब के रचयिता ने प्रथम भाव को सूर्य का भाव माना है, द्वितीय भाव को वृहस्पति का, तीसरा भाव मंगल का , चोथा भाव चंद्र का,पंचावा भाव वृहस्पति का,छटा भाव केतु का, सप्तम भाव शुक्र और बुध दोनों का, अष्टम भाव मंगल और शनि दोनों का, नवम पुनः गुरू का, दशम शनि का, एकादश पुनः गुरू का और द्वादश भाव राहु का मानकर फलादेश कहा गया है।
उपरोक्त दोनों मूल सिद्धान्तों को मानकर लाल किताब में फलादेश कहा गया है। उपरोक्त ज्योतिष के सिद्धातों के अलावा हस्त रेखा के सिद्धान्तों का भी पालन किया गया है। उसके अनुसार सभी बारह राशियों और ‘‘नवग्रहों’’ के स्थान हाथ में दर्शाए गए है वह हाथ का चित्र यहां सर्व साधारण की जानकारी के लिए दिया जा रहा है। उनके हस्त रेखा संबंध सिद्धान्तों का विश्लेषण अन्य लेख में करूंगा जिससे यह लेख विषय वस्तु के अनुरूप रहे।
लाल किताब के रचचिता के अनुसार यदि कोई ग्रह जन्म पत्री में पीड़ित हो तो उसके कष्ट निवारण हेतु उपाय इसमें दर्शाए गए है उदाहरण के तौर पर एक प्रसिद्ध कम्प्यूटर इंजीनियर की पत्रिका का परीक्षण करें। उनकी जन्म दिनांक 13 दिसम्बर, 1956 है। उनकी जन्म लग्न सिंह है और राशी मेष है। चतुर्थ स्थान में इनकी जन्म लग्न का स्वामी सूर्य, राहू और शनि द्वारा पीड़ित है। यहीं सूर्य, राशी से पंचम स्थान का स्वामी होकर अष्टम में पीड़ित है। अतः चंद्र के संबंधित वस्तुऐं दान करना उत्तम रहता है और चंद्र के लिए श्री शंकर भगवान की आराधना करना, शिव चालीसा का पाठ करना लाभ दायक रहेगा। इनके लिए सूर्य योग कारक है, अतः उसका पीड़ित रहना ठीक नहीं है। सूर्य का नग माणिक भी इन्हें लाभ देगा। इससे सूर्य बलवान होगा। 

इसी प्रकार एक प्रसिद्ध उद्योगपति जिनकी जन्म तारीख 30 जुलाई, 1965 है और धनु लग्न, सिंह राशी में जन्म हुआ है। इनका योगकारक गुरू पीड़ित है वह राहू के साथ छठे स्थान में हैं। अतः बुध से संबंधित वस्तुओं का दान करने से लाभ होगा। पीपल के वृक्ष को गमले में लगाकर पालना या पीपल को जल चढ़ाने से लाभ होगा। घर के सभी सदस्यों से पैसे इकट्ठें करके मंदिर में दान करने से लाभ होगा। गुरु इनके लिये योगकारक है, अतः पीला पुखराज भी लाभकारी रहेगा।
ग्रह के पीड़ित रहने पर उक्त ग्रह से संबंधित बीमारियां हो सकती हैं। सूर्य पीड़ित होने के समय एक टोटका यह भी है कि वह व्यक्ति मुंह में मीठी वस्तु खाकर ऊपर से पानी पीए। यह टोटका बहुत सरल है और इसके करने से सूर्य को चंद्र एवं मंगल जैसे मित्रों की सहायता से बल मिलेगा और सूर्य जनित कष्ट कम होंगे।

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट होता है कि उपरोक्त महानुभाव को बुध संबंधित वस्तुओं का दान करना या उन्हें पानी में बहा देने से लाभ होगा।
उपरोक्त महाशय के लिए लाल किताब के अनुसार मंगल बहुत योगकारी बन गया है। अतः मंगल की दशा-अंतर दशा बहुत उत्तम फल देगी। लाल किताब की थ्योरी के अनुसार इनका केतु मोक्ष कारक सिद्ध होगा वह धार्मिक प्रवृत्ति के व्यक्ति है। इनका चंद्र भी बुध के साथ प्रसन्न नहीं है। अतः शिव की आराधना लाभकारी रहेगा। इनकी मूल पत्रिका में शनि ने ‘‘शश’’ नामक ‘‘पंचमहापुरुष राजयोग’’ बनाया है और मंगल ने कुलदीपक योग बनाया है, परंतु लाल किताब के अनुसार इनका मंगल अधिक बलशाली साबित हुआ है। अतः यह यदि लाल मूंगे की अंगूठी धारण करें तो बहुत उन्नति कारक सिद्ध होगी।
अब मैं एक भाग्यशाली विद्वान महिला की पत्रिका का विशलेषण लाल किताब के अनुसार करूंगा। उनकी जन्म तारीक्ष 5 मई, 1958 है तथा मेष लग्न, वृश्चिक राशि है। यह उनकी आश्चर्यजनक पत्रिका है क्योंकि इस पत्रिका का फलादेश बताने में हमें, लाल किताब के अनुसार भी यह पत्रिका ऐसी ही रहेगी। इनका योग कारक गुरु सप्तम में पीड़ित है। अतः इन्हें शुक्र से संबंधित दान करना चाहिए- शुक्र का मंत्रजाप करना चाहिए। इससे जीवन में उत्तम फल मिलेगा। श्री महालक्ष्मी जी की पूजा अर्चना बहुत लाभकारी रहेगी।
किसी को सूर्य पीड़ित होने पर हृदय रोग हो सकता है, गवन्र्मेन्ट से हानि, आॅखों में कष्ट, पेट की बीमारियां, हड्डी की प्राबलम हो सकती है। ऐसे प्रकरण में गुड़, गेहूं, ताॅबा, लाल वस्त्र, लाल फूल दान करने से लाभ होता है। सूर्य को श्री विष्णु भगवान का स्वरूप माना है। अतः श्री विष्णु सहस्त्र नाम का पाठ करने से लाभ होगा।
यदि किसी का सूर्य कर्म स्थान (दशम) में पीड़ित हो तो यह टोटका है कि बहते पानी में तांबे का सिक्का बहा देना लाभकारी रहेगा। प्रत्येक भाव में सूर्य अनिष्टकारी होने पर भिन्न-भिन्न टोटके दिए गए है। सभी का वर्णन करना संभव नहीं है। यही सिद्धान्त सभी ग्रहों के लिए है।
इसी प्रकार यदि चंद्र पीड़ित हो तो मां का बीमार रहना, मानसिक चिन्ता रहना, अस्थमा रोग आदि कष्ट हो सकते हैं। उसके लिए चांदी को को बहते पानी में बहा देना। दूसरा टोटका यह भी है कि रात को दूध या पानी का एक बर्तन सिरहाने रखकर सो जावें और अगले सवेरे वह कीकर के वृक्ष पर डाल दें। चंद्रमा के कष्ट को दूर करने के लिए श्री शिव आराधना लाभकारी रहेगा। प्रत्येक भाव में पीड़ित चंद्र के लिए भिन्न-भिन्न टोटके है- जैसे, चंद्र तृतीय भाव में पीड़ित हो तो हरे रंग का कपड़ा कन्याओं को दान में देना आदि और चतुर्थ में चंद्र पीड़ित हो तो रात्रि को दूध नहीं पियें और हो सके तो सोमवार को पंडितो को दूध पिलावें।
यदि मंगल अनिष्टकारी हो तो मीठी रोटी तंदूर की दान करें या रेवड़िया पानी में बहा दें, या मीठा भोजन दान करें। मंगल के लिए श्री बजरंगबली जी की आराधना करें और प्रसाद चढ़ाकर ग्रहण करें आदि।
बुध अनिष्टकारी रहने पर कौड़ियों को जलाकर उनकी राख नदी में उसी दिन बहा दें और तांबे के पैसे में छेद करके पानी में बहा दें या बुध से संबंधित वस्तुएं दान करें। जैसे हरे मूंग, हरा कपड़ा, चांदी। बुध के कष्ट दूर करने के लिए श्री दुर्गा जी की आराधना ‘‘श्री दुर्गा सप्तशती’’ का पाठ करना बहुत लाभप्रद रहेगा। यदि हो सके तो नाक छिदवावें। महिलाएं यह काम सरलता से कर सकती है। यदि बुध के कारण कोई रोग हो तो सीता-फल किसी देवी के मंदिर में दान करें।
गुरु के अनिष्टकारी रहने पर परिवार के सभी सदस्यों से पैसा जमा करके मंदिर में दान करें। पीपल का वृक्ष गमले में लगाकर परिक्रमा करें। गुरु की वस्तुएं जैसे चनादाल, हल्दी साबित, केसर, तांबा (सोने की जगह) पीले फूल, केशरिया कपड़ा गुरुवार के दिन दान करें आदि।
शुक्र के अनिष्टकारी होने पर अपने भोजन में से कुछ भोजन निकाल कर गायों को खिलावें। गौंवों को घास (चरी) खिलावें। शुक्र से संबंधित वस्तुएं दान करें और श्री महालक्ष्मी जी पूजा आराधना करें।
शनि कष्टकारी होने पर मछलियों को आटा खिलाना, कौवों को अपने खाने में से कुछ खिलाना लाभ प्रद रहता है। शनि से संबंधित वस्तुएं दान करें और श्री शिवजी की पूजा आराधना करें।
केतु के अनिष्टकारी रहने पर काले कुत्ते को खाना खिलाना श्री गणेश जी की पूजा आराधना करना लाभप्रद रहता है। यदि आपके लड़के का व्यवहार आपके साथ ठीक नहीं है तो, उपरोक्त विधि से कुत्ते को रोटी खिलाना और मंदिर में कंबल दान करें।
राहू यदि किसी जन्म पत्रिका में अनिष्टकारी हो तो नारियल पानी में बहा दें और जौ को दूध में धोकर पानी में बहाने से, कोयले को पानी में बहाने से लाभ होगा। राहू की वस्तुएं ‘‘स्वीपर’’ को दान में देने से भी लाभ होगा। यदि किसी पर क्रीमिनल प्रकरण चल रहा हो तो वह भी उपरोक्त विधि करें प्रकरण में लाभ होगा।
उपरोक्त उपाय विधि दिन में ही करें रात में नहीं करें।
उपरोक्त लेखक की मान्यता यह भी है कि यदि किसी को शनि पंचम स्थान में हो तो मकान बनाते समय उसके पुत्र को कष्ट होगा। यह सिद्धान्त उसके अपने मकान पर लागू होगा, उसके पुत्र द्वारा बनाए मकान पर लागू नहीं होगा।
यदि किसी पत्रिका में सूर्य-शनि साथ हों और पत्नी का स्वभाव ठीक नहीं हो तो पत्नी के वजन के बराबर ज्वार दान करें इससे लाभ होगा।
लेखक के सिद्धान्त बहुत अच्छे है और उनके द्वारा बताए गए उपाय (टोटके) रेमेडियल मेजर अधिकतर प्रकरणों में बहुत लाभकारी सिद्ध हुए है। यह मैंने अपने कई वर्षो के शोध कार्य से वास्तविक प्रकरणों में अजमा कर देखें है और लाभप्रद सिद्ध हुए है।

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