Wednesday, September 02, 2020

पितृ पक्ष |||| Pitru Paksha ||खोले अपने पूर्वजो के मोक्ष द्वार...

आधुनिक व्यक्ति चाहे न मानें, परन्तु यह एक सत्य है कि समाज में आज भी पितरों के दोष, भूत-प्रेतों के प्रकोप देखने को मिलते हैं। इनमें रोचक बात कभी-कभी देखने को मिलती है कि भूत-प्रेत स्वयं कहते हैं कि ‘‘हमारा उद्धार कराया जाए।’’
श्राद्धों का पितरों के साथ अटूट सम्बन्ध है। पितरों के बिना श्राद्धों की कल्पना तक नहीं की जा सकती। श्राद्ध पितरों को आहार पहुंचाने का केवल-मात्र माध्यम है।
अब हमें श्राद्ध और पितरों की अलग-अलग व्यत्पत्ति और परिभाषा करनी होगी। मृत व्यक्तियों के लिए जो श्रद्धायुक्त होकर, पिर्तण, पिंड, दानादि दिया जाता है, उसे श्राद्ध कहा जाता है। जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी औध्र्व दैहिक किरया कर्म सम्पन्न हो जाएं, उसी की पितर संज्ञा हो जाती है।
जिस प्रकार देवलोक, मृत्यु लोकादि है। उसी प्रकार पितृलोक भी है।
पितरों के सात वंश हैं। इनमें तीन अमूर्त पितृवंश है और चार मूर्तिमान है। अमूर्त पितर वैराज नामक प्रजापति की संतान है। ये सभी सन्तान लोकों को प्राप्त करने के पश्चात् योग मार्ग से भ्रष्ट हुए है। देवगण इनकी पूजा करते है। ब्रह्मा के दिन के अंत में ब्रह्मवादी रूप में प्रकट होते है। फिर सांख्ययोग का आश्रय लेकर सांख्यमत और ब्रह्म का प्रचार-प्रसार करते है। स्वयं योग-अभ्यास द्वारा आवागमन के चक्र से मुक्त होते है। इनकी एक मानसी कन्या है जिस का नाम मना है। यह हिमाचल की पत्नी और पार्वती की माता है।
सूर्य मंडल में मरीचि गर्मलोक है। वहां हविष्मान नामक पितर निवास करते है। ये क्षत्रियों के पितर है।
20 अंश रेतस् (सोम) को पितृऋण कहते हैं। 28 अंश रेतस् के रूप में श्रद्धा नामक मार्ग से भेजे जाने वाले पिण्ड तथा जल आदि के दान को श्राद्ध कहते हैं। इस श्रद्धा नाम मार्ग का संबंध मध्याह्न काल में श्राद्ध करने का विधान है।
प्रजापति कदर्भ के लोगों में आज्यप पितर निवास करते ह। ये वैश्यों के पितर है।
ब्रह्माण्ड के ऊपर मानस लोग में ‘‘सोमप’’ नामक पितर रहते है। ये ब्राह्मणों के पितर है।
इन पितरों का सृष्टि के निर्माण-संरक्षण में महत्वपूर्ण सहयोग है। ये सृष्टि की सुव्यवस्था के लिए नियम, सिद्धांत, अचार-व्यवहार के सम्यक् प्रकार से संचालन के लिए भी देवों से पीछे नहीं है। अपने भक्तों के लिए विविध फलों को प्रदान करने की इनमें पूर्ण सामथ्र्य है।
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा जी ने इन सब प्रकार के पितरों की तुष्टि-पुष्टि के लिए श्राद्धों का निर्माण किया था। इसलिए पितर अपने विशेष दिनों में अपने वंशजों से कुछ कामनाएं रखते है। मत्स्य पुराण के दौ सौ चारवें अध्याय के श्राद्ध कल्प में भगवान मत्स्य जी राजेंद्र मनु से कहते है, ‘‘राजन्! पितर अपने लोक में स्थित हुए कथन करते है। क्या कोई हमारे वंश में ऐसा व्यक्ति उत्पन्न होगा जो शीतल जल वाली नदियों में जाकर जलान्जली देगा? दूध-मूल-फूल खाद्य सामग्रियों और तिल सहित श्राद्ध करेगा? कूप-बगीचा- सरोबर-बावड़ियों का निर्माण करोगय? सूर्य ग्रह में योगियों को हमारे निमित्त भोजन करायेगा? या कोई ऐसा व्यक्ति होगा जो विद्या दान करेगा? यदि एक भी ऐसा कोई कर्म करेगा तो हमें अन्नत तृप्ति का अनुभव होगा।’’
श्राद्ध में मुख्य बात ‘‘श्राद्ध’’ की है। श्राद्ध से करने पर पितृगण तृप्त हो जाते हैं। वस्तु बहुमूल्य है या अल्पमूल्य की इसकी अपेक्षा पितृगण नहीं करते। भगवान् श्रीमदभगवद्गीता में कहते हैं-
पत्रं पुष्पं फलं तायें यो में भक्त्या प्रगच्छति।
तहदं  भक्त्युपहृतमश्नामि  प्रयतात्मनः।।
यदि कोई प्रेम तथा भक्ति के साथ मुझे पत्र पुष्प, फल या जल प्रदान करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूं।
पितरों के इस प्रकार के कथनों से सुस्पष्ट हो जाता है कि मृत व्यक्तियों का शारीरिक सम्बन्ध हमारे से टूटने पर भी परोक्ष सम्बन्ध बना रहता है। इस सम्बन्ध के कारण पितर अपने वंशजों से कुछ इच्छा रखते है।
यदि पितरों की विशेष दिनों में श्राद्धों में कामना पूर्ति होती है तो वे भी अपने आशीर्वादों से उनको सुख-शांति प्रदान करते हैं। उन्हें प्रगतिशील बनाते हैं।
इसके विपरीत जब पितरों की कामना पूर्ति नहीं होती तो वे क्रोध में भरकर शाप देकर अपने वंशजों की सुख-शांति को नष्ट कर देते हैं। ऐसे व्यक्तियों के जीवन में अभाव ही अभाव रहता है। वे कभी सुख चैन का जीवन-यापन नहीं कर सकते।
इसीलिए अनादिकाल से लेकर बीसवीं शताब्दी तक श्राद्ध कर्म करने की परम्परा अक्षुण्ण चली रही। परन्तु अब इस कर्म को व्यर्थ और पाखण्ड समझा जाने लगा है। इसी कारण हमारे जीवनों में विविध समस्याएं, संकट, अभाव उत्पन्न हो गये। इनमें कुछ समस्याएं, संकट और अभव ऐसे होते हैं, जिनका कुछ भी कारण हमें समझ मंे नहीं आता।
इस बात को अब आधुनिक व्यक्ति चाहे न माने, परनतु यह एक सत्य है कि समाज में आज भी पितरों के दोष, भूत-प्रेतों के प्रकोप देखने को मिलते हैं। इनमें रोचक बात कभी-कभी देखने को मिलती है कि भूत-प्रेत स्वयं कहते हैं ‘‘कि हमारा उद्धार कराया जाए।’’
आयुः  पुत्रान्यशः  स्वर्ग  कीर्तिपुष्टि  बलंश्रियम्।
पशूनसौख्यम् धनं धान्यं प्राप्नुयात्पित् पूजनात्।।
पितरों की पूजा करने से आयु पुत्र, यश, स्वर्ग कीर्ति पुष्टिबल, लक्ष्मी पशु, धान्य प्राप्त होते हैं। मृत व्यकित्यों का श्राद्ध तर्पण नहीं कराने से उनसे पितृगण सदा असंतुष्ट रहते हैं और पुत्रादि को कोसते हैं।
गया आदि कितने तीर्थ स्थल इस भारत भूमि पर विद्यमान हैं। यहां भूत-प्रेत बने मृत जीवात्मओं का उद्धार कराया जाता है। इस संदर्भ में कितने समाचार समय-समय पर समाचारपत्रों मं पढ़ने को मिलते है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि जिन मृत व्यक्तियों कर्म श्राद्धादि कर्मसविधिसम्पन्न होते हैं, उन्हीं की पितर-संज्ञा होती है। जब भूत-प्रेतों का उद्धार हो जाता है, तब ये भी पितरों की परिधि में आ जाते हैं। भूत-प्रेतों का व्यक्तियों को पीड़ित करने का तात्पर्य भी अपना उद्धार करवाना ही होता है।
ज्योतिष शास्त्र में कुछ ग्रह-स्थितियों से पितृदोष के स्पष्ट उल्लेख हैं। आयुर्वेद शास्त्र भी पितृदोष को मान्यता देता है। गीता में मृत प्राणी के अपने गन्तव्य तक पहुंचने के लिए देवमार्ग और पितृमार्ग कहे गये हैं। शुक्ल-पक्ष को देवपक्ष और कृष्ण पक्ष को पितृपक्ष कहा गया है। चन्द्रमा को पितरों का प्रतीक माना है।
इन सब तथ्यों से सिद्ध हो जाता है कि परोक्ष रूप से पितरों का वर्तमान के मनुष्यों के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध रहता है। वर्तमान मनुष्य श्राद्धों के द्वारा अपने पितरों को संतुष्ट और पुष्ट करते हैं। इसके बदले में पितर श्राद्धकर्ता को सुख-शांति, सौभाग्य, ऐश्वर्य, प्रगति, धन-धान्यादि अनेक सम्पत्तियां प्रदान करते हैं।|| 
आयुः  पुत्रान्यशः  स्वर्ग  कीर्तिपुष्टि  बलंश्रियम्।
पशूनसौख्यम् धनं धान्यं प्राप्नुयात्पित् पूजनात्।।
पितरों की पूजा करने से आयु पुत्र, यश, स्वर्ग कीर्ति पुष्टिबल, लक्ष्मी पशु, धान्य प्राप्त होते हैं। 
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