महाभारत (वनपर्व, 109वां अध्याय) जब राजा भगीरथ ने सुना कि महात्मा कपिल ने हमारे पितरों को भस्म कर दिया था और उनको स्वर्ग नहीं मिला, तब राजा ने अपना राज्य मंत्री को प्रदान करे, हिमालय पर जाकर एक सहस्त्र वर्ष पर्यन्त घोर तप किया। जब गंगा प्रकट हुई तक भगीरथ ने उनसे अनुरोध किया कि कपिल के क्रोध से 60000 गर के पुत्र, जो हमारे पूर्व पुरुष (पुरखे) थे, जल गये है। आप अपने अपने पवित्र जल से स्नान कराकर स्वर्ग प्राप्त करा दीजिये। गंगा ने इस पर उत्तर दिया कि तुम शिवजी की आराधना कर उनको प्रसन्न करो। वे ही स्वर्ग से गिरती हुए मुझको धारण कर सकते हैं-अन्य किसी की भी शक्ति से मुझे धारण करने की क्षमता नहीं है। राजा भगीरथ ने कैलाश पर्वत पर जाकर घोर तपस्या करने के बाद शिवजी को प्रसन्न किया। शिवजी ने प्रसन्न हो राजा को वर प्रदान करते हुए अपने सिर का गंगा को धारण करना स्वीकार किया।
शिवजी के यह वर प्रदान करते ही हिमाचल की ज्येष्ठ कन्या गंगा बड़े वेग से स्वर्ग से गिरी और शिवजी ने अपने सिर पर उन्हें भूषण के समान धारण किया। तीन धारावली गंगा शिवजी के सिर पर मोती की माला के समान शोभा पाने लगी। पृथ्वी पर आने के बाद गंगाजी ने राजा सगर से पूछा कि कहो राजन! अब मैं किस ओर चलूं? भगीरथ ने उस और प्रस्थान किया जिस ओर राजा सगर के 60000 पुत्र मरे थे। गंगा राजा भगीरथ के पीछे-पीछे चली गयी। शिवजी गंगा को धारण करने के बाद कैलाश की ओर चले गये। राजा भगीरथ गंगा को समुद्र तक ले आए। गंगा ने समुद्र को (जिसको अगस्तमुनि ने पी लिया था) अपने जल से पूर्व कर दिया। राजा भगीरथ ने अपने पुरुषों को जल प्रदान कर उन्हें स्वर्ग पहुंचा दिया।
वाल्मीकि रामायण (बाल कांड 35वां सर्ग)-हिमालय की पहली कन्या गंगा और दूसरी उमा है। जब देवताओं ने अपने कार्य सिद्धि के लिये हिमाचल से गंगा को मांगा तक उसने त्रैलोक्य के हित की कामना से गंगा को दे दिया। गंगा आकाश को गयी। हिमवान ने अपनी दूसरी कन्या उमा का विवाह रूद्र से कर दिया।
वाल्मीकि रामायण (बाल कांड 42वां सर्ग)-अयोध्या के राजा दिलीप के पुत्र भगीरथ ने गोकर्ण क्षेत्रा में जाकर सहस्त्र वर्ष तक तपस्या की। ब्रह्मा प्रकट हुए। भगीरथ ने यह वर गांगा कि राजा सगर के पुत्रों की भस्म गंगा के जल से बहाई जाय। ऐसा ही होगा, यह कहते हुए ब्रह्मा ने भगीरथ से कहा कि तुम गंगा को धारण करने के लिये शिवजी को प्रार्थना करो। गंगा का आकाश से गिरना पृथ्वी से नहीं सहा जाएगा।
तब राजा भगीरथ ने एक वर्ष तक एक अंगूठे से खड़े होकर शिव की आराधना की। उपापति प्रसन्न होकर प्रकट होते हुए बोले-‘राजन् मैं अपने मस्त पर गंगा को धारण करूंगा।’ उकेस बाद गंगा विशाल रूपा और दुःसह वेग से आकाश से शिवजी के मस्तक पर गिरी। गंगा ने यह सोचा था कि वे अपने वेगवती धाराओं से शिवजी को लिये हुए पाताल लोक को चली जायंगी। किन्तु गंगा की यह धारणा गलत निकली। गंगा के इन गर्वपूर्ण विचारों को जान कार अन्तर्यामी शिव ने गंगा के गिरते ही अपनी जटा में गंगा को छिपा लिया। गंगा शिवज के मस्तक पर गिरने के बाद अनेक वर्षों तक शिवजी के जटामंडल में ही घूमती रही।
तब राजा भगीरथ ने कठोर तप करके शिवजी को फिर प्रसन्न किया। शिवजी ने हिमालय के बिन्दु सरोवर के निकट गंगा को अपने जटा से छोड़ दिया। छोड़ते ही गंगा के 7 सोते हो गये। जिन में से आह्लादनी, पावनी और नालिनी ये तीन धाराएं पूर्व की ओर तथा सुचक्षु सीता और सिंधु ये तीन धाराएं पश्चिमी दिशा में गयी। सातवीं धारा राजा भगीरथ के रथ के पीछे चली। जिस मार्ग से राजा जा रहे थे उसी मार्ग से उनके पीछे-पीछे गंगा जी समुद्र तक पहुंची। राजा भगीरथ अपने पूर्व पुरुषों (पुरखों) की भस्म के निकट गंगा को ले गये। जब गंगा ने अपने जल से उस भस् राशि का ेबहाया, तब वे सब पाप मुक्त होकर स्वर्ग को गये। भगीरथ के पीछे-पीछे चलने एवं भगीरथ द्वारा ही पृथ्वी पर आने के कारण ही श्री गंगा जी का नाम भागीरथी विख्यात हुआ।
लिंग पुराण (6वां अध्याय)-हिमालय के मैनाक और क्रौंच नामक दो पुत्रा तयो गंगा और उमा नामक दो कन्यायें थीं।
पद्य पुराण ( पाताल खण्ड 82 वां अध्याय)- वैशाख शुक्र सप्तमी को जन्हु मुनि ने गंगा जी को पी लिया था और उसी दिन पिफर अपने दाहिने कान के छिद्र से बाहर निकाल दिया। उसी से इस तिथि का नाम गंगा सप्तमी हुआ। जैसे देवताओं में विष्णु सर्वोपरि हैं उसी प्रकार सम्पूर्ण नदियों में गंगा जो श्रेष्ठ है।
देवी भागवत (9वां स्कन्दधः6 से 8 अध्याय तक) तथा
ब्रह्मवैवर्त पुराण ( प्रकृति खण्ड-6-7 अध्याय)-विष्णु भगवान की तीन स्त्रियां थीं-लक्ष्मी, सरस्वती और गंगा। एक समय गंगा पर विष्णु का अधिक प्रेम देखकर सरस्वती क्रोध वश गंगा के केश पकड़ने को तैयार हुई। लक्ष्मी ने दोनों का बीच बचाव किया। इस पर सरस्वती ने लक्ष्मी पर क्रोध पर शाप दिया कि तुम वृक्ष एवं नदी रूप होगी तथा गंगा को भी शाप दिया कि तुम भी नदी होकर पृथ्वीतल में जाओंगी। इस पर गंगा ने क्रोधित होकर सरस्वती अपनी कला से नदी रूप हुई जो भरतखण्ड में अपने से भारतीय कहलायी और आपव विष्णु के निकट स्थिर रहीं। गंगा जी भगीरथ के ले आने से भरतखण्ड में आयी और भागीरथी कहलायीं। शिवजी ने गंगा को अपने सिर में धारण कर लिया। लक्ष्मी जी अपनी कला से पद्यावती नदी होकर भारत में आयीं जो पद्या या पद्दा कहलायी। लक्ष्मी जी स्वयं पूर्ण अंश से विष्णु भगवान के समीप ही रहीं। उसके उपरान्त वह धर्मध्वज की कन्या होकर तुलसी नाम से प्रसि( हुई। ये सब कलियुग के पांच सहस्त्र वर्ष बीतने तक भरतखण्ड में रहेंगी। पश्चात नदी रूप त्याग कर सब विष्णु भगवान के स्थान पर चली जायेंगी।
कूर्म पुराण (ब्राह्मी संहिता, उत्तरार्द्ध, 36वां अध्याय) हिमालय पर्वत तथा गंा नदी सर्वत्र पवित्र हैं। सत्ययुग में नैमिशारण्य, त्रेता में पुष्कर, द्वापर में कुरुक्षेत्र तथा कलियुग में गंगा जी तीर्थों में प्रधान है।
अग्नि पुराण (110वां अध्याय) गंगा सर्वदा सब जीवों को गति देने वाली है। जब तक मनुष्य की हड्डी गंगा जी में रहती है तब तक वह स्वर्ग में निवास करता है। गंगा जल के स्पर्श, पान और दर्शन तथा गंगा शब्द के उच्चारण मात्र से मनुष्य की सद्गति होती है। गंगाद्वार, प्रयाग तथा गंगासागर इन तीन स्थानों में गंगा जी का मिलना दुर्लभ है।
हरिद्वार के समीप ही ऋषिकेश एवं लक्ष्मणझूला भी दर्शनीय स्थान हैं जहां समय-समय पर ऋषि, साधु, महात्मा आदि के दर्शन प्राप्त होते रहते हैं।
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