भद्रा में शुभ कर्म त्याज्य
प्राचीन काल में देव और दानवों के संग्राम के अवसर पर भगवान महादेव के शरीर से भद्रा की उत्पत्ति हुई। इसका मुहँ गर्दभ के समान हैं। लम्बी इसकी पूंछ है। इसके तीन पैर हैं। इसकी गर्दन सिंह की तरह हैं। मुर्दे पर यह आरूढ़ हैं। इसके सात हाथ हैं। पेट इसका शुष्क यह महा भंयकर, विकराल मुखी और बड़े - बड़े भयानक दांतो से युक्त है। इसके साथ - साथ अग्नि की ज्वाला भी चलती है। उत्पन्न होते ही इसने राक्षसों का संहार शुरू कर दिया। देवताओं ने प्रसन्न होकर उसे विष्टि नाम दिया और इसे करणों में स्थान दिया।
जब मेष, वृष, मिथुन, और वृश्चिक का चन्द्रमा होता है तब स्वर्ग लोक में भद्रा का निवास माना जाता है। कन्या, तुला, धानु, और मकर राशि के चन्द्रमा में पाताल में भद्रा रहती है। कुंभ, मीन, और कर्क, सिंह के चन्द्रमा में भद्रा पृथ्वी पर होती है। किसी भी माह के कृष्ण पक्ष में दशमी, तृतीय, सप्तमी , और चतुर्दशी को भद्रा रहती है। प्रारम्भ की 2 तिथियों में भद्रा तिथि की अंतिम तीस घटियों में लगती है। जबकि अंतिम 2 तिथियों प्रारम्भ की तीस घड़ी भद्रा रहती हैं। शुक्ल पक्ष में एकादशी, चतुर्थी, अष्टमी और पूर्णिमा को भद्रा जाननी चाहिए। मोटे रूप में केवल पृथ्वी की भद्रा ही शुभ कार्य मेंछोड़ने योग्य है। चाहिए। लेकिन अघिकांश पण्डितों का विचार है कि यथासम्भव सभी लोकों की भद्रा में शुभ कार्य नही किये जाने चाहिए। भद्रा में शुभ कार्य करने पर तो वह कार्य सिद्ध होगा ही नही, स्वंम भी अशुभ फ़ल प्राप्त करेगा। होली और रक्षा-बन्धान पर प्रायः भद्रा रहती है। जानकारी के अभाव मेें प्रायः गांवो में भद्रा में ही सूम जिमा देते है। और रक्षा - बन्धान कर देते है, जो बहुत ही अशुभ है।
भद्रा में अपराधाी को फ़ांसी लगाना, गिरफ्तार करना, ऊँट, घोड़े और बैल को ‘ सीधा ‘ (दमन) करना और उच्चाटन आदि तांत्रिक कर्म करना अच्छा माना जाता है।
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