Sunday, August 02, 2020

रक्षा-बन्धन (श्रावणी)

रक्षा-बन्धन (श्रावणी)
यह त्यौहार सावन की पूर्णिमा को मनाया जाता है। यह भाई बहन को स्नेह की डोर में बांधने वाला त्यौहार है। इस दिन बहन-भाई के हाथ में रक्षा बांधती है तथा मस्तक पर टीका लगाती है। रक्षा बंधन का अर्थ है (रक्षा$बंधन) अर्थात् किसी को अपनी रक्षा के लिये बांध लेना। राखी बांधते समय बहन कहती है- हे भैया! तुम्हारे शरण में हूं मेरी सब प्रकार से रक्षा करना। एक बार भगवान कृष्ण के हाथ में चोट लग गई तथा खून गिरने लगा। द्रौपदी ने जब देखा तो वह तुरन्त धोती का कोर फाड़कर भाई के हाथ में बांध दिया। इसी बन्धन के ऋणी श्रीकृष्ण ने दुःशासन द्वारा चीर खींचते समय द्रौपदी की लाज रखी थी।
मध्य कालीन इतिहास में एक ऐसी घटना मिलती है जिसमें चित्तौड़ की हिन्दूरानी कर्मवती ने दिल्ली के मुगल बादशाह हुमायूं को अपना भाई मानकर उसके पास राखी भेजी थी। हुमायूं ने कर्मवती की राखी स्वीकार कर ली और उसकी सम्मान रक्षा के लिये गुजरात के बादशाह से युद्ध किया।
कथा - एक बार युधिष्ठर ने कृष्ण भगवान से पूछा- अच्युत! मुझे रक्षा बन्धन की वह कथा सुनाइये जिससे मनुष्यों की प्रेत बाधा तथा दुःख दूर होता है। इस पर भगवान ने कहा- हे पाण्डव श्रेष्ठ! प्राचीन समय में एक बार देवों तथा असुरों में बारह वर्षों तक युद्ध हुआ इस संग्राम में देवराज इन्द्र की पराजय हुई। देवता कान्ति विहीन हो गये। इन्द्र रणस्थल छोड़कर विजय की आशा को तिलांजलि दे-देकर देवताओं सहित अमरावती में चला गया।
विजेता दैत्यराज ने तीनों लोकों को अपने वश में कर लिया। उसने राजपद से घोषित कर दिया कि इन्द्र देव सभा में न आयें तथा देवता एवं मनुष्य यज्ञ-कर्म न करें। सब लोग मेरी पूजा करें। जिसको इसमें आपत्ति हो वह राज्य छोड़कर चला जाय। दैत्यराज की इस आज्ञा से यज्ञ, वेद पठन-पाठन तथा उत्सव समाप्त कर दिये गये। धर्म के नाश होने से देवों का बल घटने लगा। इधर इन्द्र दानवों से भयभीत हो, बृहस्पति को बुलाकर कहने लगा-हे गुरु! मैं शत्रुओं से घिरा हुआ प्राणान्त संग्राम करना चाहता हूं। होनहार बलवान होेती है, जो होना होगा होकर रहेगा। पहले तो बृहस्पति ने समझाया कि कोप करना व्यर्थ है परन्तु इन्द्र की हठवादिता तथा उत्साह देखकर रक्षा विधान करने को कहा।
श्रावण पूर्णिमा के प्रातःकाल की रक्षा का विधान सम्पन्न किया गया।
‘येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबलः।
तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।
उक्त मन्त्रोच्चारण से बृहस्पति (देवगुरु) ने श्रावणी-पूर्णिमा के ही दिन रक्षा विधान किया। सह धर्मिणी इन्द्राणी के साथ वृत्र संहारक इन्द्र ने बृहस्पति की उस वाणी का अक्षरण पालन किया। इन्द्राणी ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा स्वस्तिवाचन कराके इन्द्र के दांये हाथ में रक्षा की पोटली बांध दिया। इसी के बल पर इन्द्र ने दानवों पर विजय प्राप्त किया।

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