Saturday, September 27, 2025

विजयादशमी : विजय, शक्ति और नए आरम्भ का पर्व

 भारतीय संस्कृति में कुछ तिथियाँ ऐसी होती हैं जो पूरे वर्ष विशेष शुभ मानी जाती हैं। आश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि, जिसे हम विजयादशमी या आम बोलचाल में दशहरा कहते हैं, उन्हीं में से एक है। यह दिन केवल धार्मिक दृष्टि से ही नहीं बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक परंपराओं की दृष्टि से भी बेहद महत्वपूर्ण है।


विजयादशमी का महत्व

धर्मग्रंथों जैसे हेमाद्रि, निर्णयसिन्धु, व्रतराज और धर्मसिन्धु आदि में विजयादशमी का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस दिन को तीन सबसे शुभ तिथियों में गिना गया है। अन्य दो हैं – चैत्र शुक्ल प्रतिपदा और कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा।
इसी कारण लोग इस दिन –

  • नए कार्य की शुरुआत करते हैं,

  • बच्चे अक्षरारंभ (विद्या की शुरुआत) करते हैं,

  • और राजा युद्ध-प्रयाण को शुभ मानते थे।

तिथि और नक्षत्र का विचार

शास्त्रों के अनुसार विजयादशमी का मुख्य समय अपराह्न माना गया है। प्रदोष (शाम का समय) गौण होता है।

  • यदि दशमी पर श्रवण नक्षत्र आता है तो वह विशेष शुभ होती है।

  • यदि दशमी नवमी से मिलती है तो भी उसे मान्य माना गया है।

  • कई ग्रंथों में दशमी और एकादशी के संयुक्त होने पर भी अलग-अलग नियम बताए गए हैं।

संक्षेप में कहा जाए तो विजयादशमी का समय और तिथि जटिल जरूर है, परंतु लोगों की आस्था इसे हर रूप में शुभ मानती है।

प्रमुख अनुष्ठान

विजयादशमी पर कई परंपराएँ प्रचलित हैं। इनमें मुख्य हैं –

1. अपराजिता पूजन

अपराह्न काल में गाँव या नगर के उत्तर-पूर्व दिशा में जाकर भूमि को लीपकर, आठ कोणों का चित्र बनाकर अपराजिता देवी का पूजन किया जाता है। देवी जया और विजया का आवाहन कर 16 उपचारों से पूजा की जाती है।

2. शमी पूजन

शमी वृक्ष का पूजन विशेष रूप से किया जाता है। यदि शमी उपलब्ध न हो तो अश्मन्तक वृक्ष (bauhinia racemosa) का पूजन किया जा सकता है। वैदिक यज्ञों में शमी की लकड़ी से अग्नि प्रज्वलित की जाती थी, इसीलिए यह शक्ति और साहस का प्रतीक मानी जाती है।

3. सीमोल्लंघन

इस दिन लोग अपने गाँव या नगर की सीमा लाँघकर लौटते हैं। इसे समृद्धि और शुभ कार्यों की शुरुआत का प्रतीक माना जाता है।

4. शस्त्र और औजारों की पूजा

किसानों द्वारा हल और औजारों की, तथा सैनिकों द्वारा शस्त्रों की पूजा की जाती है।

ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व

  • प्राचीन काल में राजाओं द्वारा इस दिन घोड़ों, हाथियों और सेना का नीराजन (आरती) किया जाता था।

  • कुछ स्थानों पर पशुबलि की परंपरा भी जुड़ी रही है।

  • स्वतंत्रता से पहले मैसूर और बड़ौदा जैसी रियासतों में विजयादशमी पर भव्य शोभायात्राएँ और दरबार लगते थे।

  • कालिदास ने भी रघुवंश महाकाव्य में रघुवंशी राजाओं द्वारा अश्व-नीराजन का वर्णन किया है।

रामलीला और रावण-दहन

उत्तर भारत में विजयादशमी का सबसे लोकप्रिय रूप है रामलीला का समापन। नौ दिनों तक चलने वाली रामलीला का अंतिम दिन रावण-दहन के साथ होता है। यह अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक है।

दशहरे की उत्पत्ति

दशहरे की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों के अलग-अलग मत हैं –

  • कुछ लोग इसे कृषि-उत्सव मानते हैं, क्योंकि इस समय नई फसल आती है।

  • कुछ इसे युद्ध-प्रयाण का समय मानते हैं, क्योंकि बरसात समाप्त हो जाती है और मार्ग सुगम हो जाते हैं।

‘दशहरा’ शब्द दश + अहन् (दस दिन) से बना है। यही कारण है कि नवरात्र के दस दिनों के बाद दशमी को यह पर्व मनाया जाता है।

निष्कर्ष

विजयादशमी केवल एक धार्मिक पर्व नहीं, बल्कि यह जीवन में नई शुरुआत, शक्ति, साहस और विजय का प्रतीक है। यही कारण है कि आज भी लोग इस दिन कोई भी शुभ कार्य करने में हिचकिचाते नहीं हैं।

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महानवमी व्रत और पूजन विधि

नवरात्रि के नौ दिनों का समापन महानवमी के साथ होता है। यह तिथि देवी दुर्गा के आराधन का विशेष पर्व मानी जाती है। मान्यता है कि इसी दिन माता दुर्गा ने असुरों के राजा महिषासुर का संहार किया था। इसलिए यह दिन अच्छाई की बुराई पर विजय का प्रतीक माना जाता है।


नवमी व्रत का संकल्प

आश्विन शुक्ल पक्ष की नवमी के दिन प्रातः स्नान कर नित्यकर्म समाप्त करना चाहिए। इसके बाद भगवती के समक्ष व्रत का संकल्प इस मंत्र के साथ किया जाता है—

"उपोष्य नवम त्वद्य यामेष्वष्टसु चण्डिके।
तेन प्रीता भव त्वं भोः संसारात् त्राहि मां सदा॥"

अर्थात्—हे चण्डिके! आज मैं नवमी का उपवास कर रहा हूँ, आप प्रसन्न होकर मुझे इस संसार सागर से पार करें।

पूजा स्थल की सजावट

  • देवी पूजन के स्थान को ध्वजा, पताका, पुष्पमालाओं और बंदनवार से सजाना चाहिए।

  • उपलब्धता के अनुसार पंद्रह, सोलह, छत्तीस या राजोपचार विधि से पूजन करना श्रेयस्कर होता है।

  • माता को विविध प्रकार के अन्न और पेय का भोग अर्पित करें।

  • अंत में घृत की बत्ती या कपूर जलाकर नीराजन किया जाता है।

विशेष पूजा और अश्व पूजन

इस दिन राजाओं और शासकों को विशेष रूप से नए घोड़ों का पूजन करना चाहिए। इसका विस्तृत विवरण दशमी के शस्त्र पूजन में बताया गया है।

नवमी की विशेषता

  • इस दिन पूर्वविद्धा नवमी को ही प्रमुख माना गया है।

  • यदि इस तिथि में मूल, पूर्वाषाढ़ा और उत्तराषाढ़ा नक्षत्र का संयोग हो तो यह नवमी त्रैलोक्य दुर्लभ कही जाती है।

  • इस संयोग में विविध उपहारों और सामग्रियों से पूजा करने पर महाफल की प्राप्ति होती है।

महत्त्व और मान्यता

महानवमी का महत्व केवल पूजा तक सीमित नहीं है, बल्कि यह दिन हमें याद दिलाता है कि अंततः जीत सदैव सत्य और धर्म की ही होती है। माता दुर्गा का महिषासुर वध इसी बात का द्योतक है कि जब भी अधर्म बढ़ेगा, तो देवशक्ति अवश्य प्रकट होकर उसका नाश करेगी।

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Thursday, September 18, 2025

नवरात्रि 2025 में सरस्वती पूजा : विधि, महत्व और तिथियाँ

 नवरात्रि के पावन दिनों में माँ दुर्गा के विभिन्न स्वरूपों की पूजा होती है। इन नौ दिनों में ज्ञान और विद्या की देवी माँ सरस्वती की पूजा का भी विशेष महत्व है। इस बार नवरात्रि 2025 में सरस्वती पूजा का आवाहन 29 सितंबर को होगा। परंपरा के अनुसार पूजा का प्रारंभ आवाहन से और समापन विसर्जन से होता है।



सरस्वती पूजा की परंपरागत विधि

आवाहन और विसर्जन का समय

शास्त्रों में उल्लेख है कि आश्विन शुक्ल पक्ष में मूल नक्षत्र पर देवी सरस्वती का आवाहन किया जाता है और श्रवण नक्षत्र (जो मूल से चौथा नक्षत्र है) पर उनका विसर्जन किया जाता है। यह पूजा सामान्यतः चार दिनों तक चलती है – आश्विन शुक्ल सप्तमी से लेकर दशमी तक।

इन दिनों में विशेष नियम भी बताए गए हैं। व्रतराज और वर्षकृत्यदीपक जैसे ग्रंथों में लिखा है कि इस अवधि में पढ़ाई-लिखाई, अध्यापन और लेखन कार्य वर्जित माने जाते हैं। इसका कारण है कि इन दिनों विद्या का अधिष्ठान स्वयं देवी सरस्वती के चरणों में समर्पित होता है।

सरस्वती की स्थापना

आश्विन शुक्ल नवमी को पुस्तकों और वाद्ययंत्रों पर माता सरस्वती की स्थापना की जाती है। विशेषकर दक्षिण भारत और तमिल प्रदेशों में यह परंपरा अत्यंत लोकप्रिय है। वहाँ घर के सभी सदस्य – छोटे-बड़े – अपनी पुस्तकों को एकत्र करते हैं, महिलाएँ और कन्याएँ अपनी संगीत-पुस्तकें व वीणा लेकर आती हैं। इन सभी को देवी सरस्वती का रूप मानकर पूजित किया जाता है।

इसी दिन शिल्पकार और मजदूर अपने-अपने औजारों की भी पूजा करते हैं। इसे ही आयुध पूजा कहा जाता है।

नवरात्रि 2025 में सरस्वती पूजा का कार्यक्रम

नवरात्रि 2025 में सरस्वती पूजा का मुख्य दिन मंगलवार, 30 सितंबर 2025 होगा, जो नवरात्रि का आठवाँ दिन है।

कार्यक्रम का क्रम

  • 29 सितंबर 2025 (सोमवार) – सरस्वती आवाहन
    इस दिन भक्तजन देवी का आह्वान कर पूजा की शुरुआत करते हैं।

  • 30 सितंबर 2025 (मंगलवार) – सरस्वती पूजा
    यह सबसे महत्वपूर्ण दिन है। इस दिन विद्या, कला और ज्ञान की देवी की विशेष पूजा-अर्चना होती है। बच्चे अपनी पढ़ाई में सफलता की प्रार्थना करते हैं और कलाकार अपनी कला को निखारने का आशीर्वाद माँगते हैं।

  • 1 अक्टूबर 2025 (बुधवार) – सरस्वती बलिदान
    इस दिन देवी को प्रतीकात्मक भेंट अर्पित की जाती है। इसे विद्या और श्रद्धा का समर्पण माना जाता है।

  • 2 अक्टूबर 2025 (गुरुवार) – सरस्वती विसर्जन
    पूजा का समापन होता है। देवी का विसर्जन कर भक्त उनके आशीर्वाद के साथ पुनः शिक्षा और कार्य की ओर लौटते हैं।

सरस्वती पूजा का महत्व

सरस्वती पूजा केवल देवी की आराधना नहीं है, बल्कि यह ज्ञान, कला और कौशल को सम्मान देने की परंपरा भी है। इन दिनों में पूजा करने से व्यक्ति को विद्या में सफलता, बुद्धि में प्रखरता और कला में निपुणता प्राप्त होती है। #SaraswatiPuja2025 #Navratri2025 #SaraswatiMaa #SaraswatiWorship #AyudhaPuja #SaraswatiPujaRituals #VidyakiDevi #NavratriCelebration #HinduFestivals2025 #SaraswatiBlessings #सनातन #पवित्रता #ध्यान #मंत्र #पूजा #व्रत #धार्मिकअनुष्ठान #संस्कार #ऋभुकान्त_गोस्वामी #RibhukantGoswami #Astrologer #Astrology #LalKitab #लाल_किताब #PanditVenimadhavGoswami

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Friday, September 12, 2025

त्रिशक्ति साधना: नवरात्रि में जीवन साधना का रहस्य

 अश्विन मास में आने वाली शारदीय नवरात्रि का महत्व केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं है। यह समय जीवन को सकारात्मक दिशा देने और आत्मिक शक्ति प्राप्त करने का होता है। माना जाता है कि इन नौ दिनों की साधना से साधक अपने भीतर की बुराइयों पर विजय प्राप्त कर पाता है।

नवरात्रि की नौ रातें तीन-तीन भागों में बंटी होती हैं –

  • प्रथम तीन दिन – माँ दुर्गा की आराधना

  • मध्य के तीन दिन – माँ लक्ष्मी की साधना

  • अंतिम तीन दिन – माँ सरस्वती की उपासना

इन्हीं तीन देवियों की साधना से जीवन की संपूर्ण साधना पूरी होती है।


माँ दुर्गा: आंतरिक विकृतियों का नाश

नवरात्रि की शुरुआत माँ दुर्गा की पूजा से होती है। दुर्गा को दुर्गति नाशिनी कहा गया है यानी वे हमारे अंदर की बुराइयों का नाश करती हैं।

महिषासुर का वास्तविक अर्थ

कहा जाता है कि माँ दुर्गा ने महिषासुर का वध किया। यह ‘भैंसा’ कोई बाहरी दैत्य नहीं बल्कि हमारे भीतर की तामसिक प्रवृत्तियाँ हैं – आलस्य, अज्ञान और जड़ता। दुर्गा साधना का मतलब है अपने इन दुर्गुणों की बलि देना। बलि का आशय किसी पशु की बलि नहीं, बल्कि अंदर की नकारात्मक शक्तियों को समाप्त करना है।

माँ लक्ष्मी: सच्ची समृद्धि की प्राप्ति

चतुर्थी से षष्ठी तक महालक्ष्मी की साधना की जाती है। अधिकांश लोग लक्ष्मी को केवल धन-वैभव की देवी मानते हैं। लेकिन वास्तविकता इससे कहीं गहरी है।

धन का असली अर्थ

सोना-चाँदी, गड्डियाँ या भौतिक साधन ही धन नहीं हैं। असली धन है – आत्मसंयम और शुद्ध अंतःकरण। यदि संयम न हो तो चाहे जितना पैसा आए, वह बुरी आदतों में नष्ट हो जाता है।
महालक्ष्मी की साधना हमें आत्मअनुशासन, सद्गुण और आंतरिक समृद्धि प्रदान करती है। जब मन शुद्ध होता है तभी भौतिक धन का भी सही उपयोग हो पाता है।

माँ सरस्वती: आत्मज्ञान का प्रकाश

नवरात्रि की अंतिम तीन रातें माँ सरस्वती के लिए होती हैं। दुर्गा साधना से विकार दूर हुए, लक्ष्मी साधना से मन शुद्ध हुआ, अब आवश्यकता है ज्ञान की।

सर्वोच्च ज्ञान क्या है?

सरस्वती केवल किताबों का ज्ञान या कलाओं की देवी नहीं हैं। वे आत्मज्ञान की देवी हैं। गीता में भी भगवान कृष्ण कहते हैं – आत्मा का ज्ञान ही सर्वोच्च ज्ञान है। जब तक इंसान अपने ‘स्व’ को नहीं पहचानता, तब तक जीवन अधूरा ही रहता है।
सरस्वती साधना हमें यही आत्मबोध कराती है।

रात्रि साधना का रहस्य

नवरात्रि में रात को जागरण और साधना करने का विशेष महत्व है। दिन में नहीं, बल्कि रात में ही साधना करने का विधान है।

रात नींद और आलस्य का समय है, जो तमोगुण का प्रतीक है। नवरात्रि का संदेश है – तमोगुणी निद्रा से जागो। जब साधक जागरण करता है, तो उसके भीतर का ‘महिषासुर’ यानी आलस्य और अज्ञान पराजित होने लगता है।

नवरात्रि: जीवन साधना का पर्व

  • दुर्गा साधना – दुर्गुणों का अंत

  • लक्ष्मी साधना – आंतरिक शुद्धता और समृद्धि

  • सरस्वती साधना – आत्मज्ञान की प्राप्ति

इन तीनों साधनाओं को मिलाकर ही जीवन साधना पूरी होती है। नवरात्रि हमें शक्ति, संयम और ज्ञान तीनों देती है। यही त्रिशक्ति साधना साधक के जीवन को सार्थक और सफल बनाती है।

निष्कर्ष

नवरात्रि केवल व्रत-उपवास या धार्मिक कर्मकांड का पर्व नहीं है। यह आत्मिक जागरण और जीवन सुधार का अवसर है।
जो व्यक्ति इन पावन दिनों में साधना करता है, वह अपने भीतर नई ऊर्जा, साहस और प्रकाश का अनुभव करता है। लेकिन जो इन दिनों को यूँ ही व्यर्थ जाने देता है, वास्तव में वही अभागा कहलाता है। #नवरात्रि #त्रिशक्ति_साधना #माँदुर्गा #महालक्ष्मी #माँसरस्वती #नवरात्रिपूजा #नवरात्रिव्रत #शारदीयनवरात्रि #आध्यात्मिकसाधना #जीवनसाधना #दुर्गापूजा #आत्मज्ञान #भक्ति_भाव #आध्यात्मिकता #SanatanDharma #सनातन #पवित्रता #ध्यान #मंत्र #पूजा #व्रत #धार्मिकअनुष्ठान #संस्कार #ऋभुकान्त_गोस्वामी #RibhukantGoswami #Astrologer #Astrology #LalKitab #लाल_किताब #PanditVenimadhavGoswami

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देवी की पूजा में नैवेद्य अर्पण और स्तवन का महत्व

 भारतीय संस्कृति में देवी की पूजा केवल श्रद्धा या भाव से ही नहीं की जाती, बल्कि उसमें विधान और नियम का भी विशेष महत्व है। शास्त्रों में कहा गया है कि तिथि, वार, नक्षत्र और मासानुसार यदि देवी को भोग (नैवेद्य) अर्पित किया जाए तो साधक को अद्भुत फल प्राप्त होते हैं।

इस लेख में हम जानेंगे –

  • तिथियों के अनुसार नैवेद्य

  • सप्ताह और नक्षत्रों के अनुसार अर्पण

  • मासिक तृतीया की विशेष पूजा

  • और देवी की कृपा प्राप्त करने का गुप्त रहस्य




देवी पूजा का वास्तविक स्वरूप

पुराणों में वर्णन है कि जब नारद जी ने भगवान नारायण से पूछा –
“हे प्रभो! देवी की पूजा कैसे की जाए जिससे साधक को परमपद प्राप्त हो और जीवन के कष्ट दूर हो जाएँ?”

तब भगवान ने उत्तर दिया –
“जो मनुष्य श्रद्धा से देवी जगदम्बा की पूजा करता है, वह चाहे कितने भी संकट में फँसा हो, देवी स्वयं उसकी रक्षा करती हैं। अतः हर किसी का परम कर्तव्य है कि वह विधिपूर्वक देवी की आराधना करे।”

पूजा की मूल विधि

  • देवी की पूजा षोडशोपचार विधि से करनी चाहिए।

  • पूजन के बाद तिथि और अवसर के अनुसार विशेष नैवेद्य अर्पण करना अनिवार्य है।

  • अर्पित नैवेद्य को बाद में ब्राह्मण को दान देना चाहिए।

तिथियों के अनुसार नैवेद्य

हर तिथि पर देवी को अलग-अलग भोग चढ़ाने का विधान है –

  • प्रतिपदा – घी (रोग नाश)

  • द्वितीया – चीनी (दीर्घायु)

  • तृतीया – दूध (दुःखों से मुक्ति)

  • चतुर्थी – मालपुआ (विघ्न नाश)

  • पंचमी – केला (बुद्धि वृद्धि)

  • षष्ठी – शहद (रूप-सौंदर्य)

  • सप्तमी – गुड़ (शोकमुक्ति)

  • अष्टमी – नारियल (संताप से रक्षा)

  • नवमी – धान का लावा (लोक-परलोक में सुख)

  • दशमी – काले तिल (यम भय नाश)

  • एकादशी – दही (देवी प्रसन्नता)

  • द्वादशी – चिउड़ा (भक्ति वृद्धि)

  • त्रयोदशी – चना (संतान सुख)

  • चतुर्दशी – सत्तु (शिव कृपा)

  • पूर्णिमा/अमावस्या – खीर (पितृ तृप्ति)

👉 इन्हीं वस्तुओं से हवन करना भी अत्यन्त शुभ माना गया है।

सप्ताह के अनुसार नैवेद्य

  • रविवार – खीर

  • सोमवार – दूध

  • मंगलवार – केला

  • बुधवार – मक्खन

  • गुरुवार – चीनी

  • शुक्रवार – मिश्री

  • शनिवार – घृत

नक्षत्रों के अनुसार नैवेद्य

सत्ताईस नक्षत्रों के लिए भी अलग-अलग नैवेद्य बताए गए हैं, जैसे – घृत, तिल, चीनी, दही, दूध, मलाई, लस्सी, लड्डु, तारफेनी, घृतमण्ड, कसार, पापड़, घेवर, पकौड़ी, कोकरस, घृतमिश्रित चने का चूर्ण, मधु, चूरमा, गुड़, चारक, पुत्रा, मक्खन, मूँग के बेसन का सत्ताईस वस्तुएँ हैं ।

हर नक्षत्र में यदि उसी के अनुसार भोग अर्पित किया जाए तो देवी विशेष रूप से प्रसन्न होती हैं।

योग के अनुसार नैवेद्य

विष्कुम्भ आदि योगों के लिए भी विशेष नैवेद्य निर्धारित हैं –
गुड़, दूध, दही, शहद, चना, नारियल, नींबू, अनार, आम, आँवला, खीर इत्यादि।

इन वस्तुओं का योगानुसार अर्पण साधक की मनोकामनाएँ पूरी करता है।

मासिक तृतीया की विशेष पूजा

हर महीने की शुक्ल तृतीया को देवी की पूजा का अलग ही महत्व है।

महुआ वृक्ष को देवी का रूप मानकर पूजा करनी चाहिए और हर महीने भिन्न नैवेद्य अर्पित करना चाहिए –

  • वैशाख – गुड़

  • ज्येष्ठ – मधु

  • आषाढ़ – महुए का रस

  • श्रावण – दही

  • भाद्रपद – चीनी

  • आश्विन – खीर

  • कार्तिक – दूध

  • मार्गशीर्ष – फेनी

  • पौष – दधिकुचिका

  • माघ – घृत

  • फाल्गुन – नारियल

इन दिनों देवी के बारह नाम भी लिए जाते हैं –
मङ्गला, वैष्णवी, माया, कालरात्रि, दुरत्यया, महामाया, मातङ्गी, काली, कमलवासिनी, शिवा, सहस्रचरणा, सर्वमङ्गला।

निष्कर्ष

देवी पूजा में केवल मंत्र या स्तोत्र ही नहीं, बल्कि सही समय और सही भोग का अर्पण भी बहुत महत्त्व रखता है।

👉 यदि साधक तिथि, वार, नक्षत्र और मासानुसार नैवेद्य अर्पित करता है तो –

  • रोग, शोक और संकट दूर होते हैं

  • पितृ प्रसन्न होते हैं

  • भगवान शिव तक की कृपा प्राप्त होती है

  • और अंततः साधक को देवी का परम आशीर्वाद मिलता है।

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विजयादशमी : विजय, शक्ति और नए आरम्भ का पर्व

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