सनातन धर्म की परंपराओं और पुराणों में देवी लक्ष्मी को समृद्धि, सौभाग्य और ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री माना गया है। उनके अवतरण की कथा केवल एक धार्मिक आख्यान ही नहीं, बल्कि मानवीय जीवन के लिए गहरा संदेश भी देती है। आइए जानते हैं कि माता लक्ष्मी कैसे अवतरित हुईं और किस प्रकार पृथ्वी पर भी उनका प्रकट होना हुआ।
दुर्वासा ऋषि का श्राप और देवताओं की दुर्दशा
एक समय की बात है, जब देवताओं के राजा इंद्र ने महामुनि दुर्वासा द्वारा दी गई पुष्पमाला का अपमान कर दिया। दुर्वासा ऋषि अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने इंद्र को श्राप दिया कि वह अपनी ‘श्री’ यानी समृद्धि से वंचित हो जाए।
श्राप का असर इतना गहरा हुआ कि न केवल इंद्र, बल्कि सभी देवगण और यहाँ तक कि मृत्युलोक भी श्रीहीन हो गए। लक्ष्मी जी, जिन्हें “श्री” कहा जाता है, इस अपमान और वातावरण से दुखी होकर स्वर्ग छोड़कर बैकुण्ठ लौट गईं और महालक्ष्मी में लीन हो गईं।
देवताओं का बैकुण्ठ की ओर प्रस्थान
देवगण असहाय होकर ब्रह्माजी के पास पहुंचे। ब्रह्माजी उन्हें लेकर भगवान विष्णु के धाम बैकुण्ठ पहुँचे। वहाँ उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई। भगवान विष्णु ने देवताओं को उपाय बताया –
“तुम असुरों के साथ मिलकर क्षीरसागर का मंथन करो। उससे अनमोल रत्न मिलेंगे और देवी लक्ष्मी भी पुनः सिंधु-कन्या के रूप में प्रकट होंगी।”
समुद्र मंथन और रत्नों का प्राकट्य
देवताओं और दैत्यों ने मिलकर मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाकर समुद्र मंथन आरंभ किया।
सबसे पहले हलाहल विष निकला जिसे भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण कर लिया। उसके बाद एक-एक कर कई रत्न प्रकट हुए – कामधेनु गाय, उच्चैःश्रवा अश्व, ऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, शंख, धनुष, धन्वंतरि, चंद्रमा और कुल चौदह रत्न।
लक्ष्मी जी का दिव्य प्राकट्य
अंततः, समुद्र मंथन से अपूर्व तेज से आभा बिखेरती हुई लक्ष्मी जी प्रकट हुईं। उनका सौंदर्य देखकर देवता और दानव दोनों ही मंत्रमुग्ध हो गए। थोड़ी देर के लिए मंथन भी रुक गया क्योंकि सबकी निगाहें उन पर ही टिक गईं।
देवराज इंद्र ने उनके लिए आसन प्रस्तुत किया। ऋषियों ने विधिवत उनका अभिषेक किया। समुद्र ने पीले वस्त्र अर्पित किए और विश्वकर्मा ने दिव्य कमल भेंट किया। मंगलमय आभूषण धारण कर लक्ष्मी जी ने चारों ओर दृष्टि डाली।
परंतु उनमें से कोई भी वर उन्हें योग्य न लगा। तभी जब भगवान विष्णु प्रकट हुए, लक्ष्मी जी ने अपने हाथों की कमलमाला उनके गले में डाल दी। भगवान ने भी उन्हें अपने वामभाग में स्थान दिया। इस प्रकार लक्ष्मी जी पुनः सृष्टि में अवतरित होकर विष्णु संग विराजित हुईं।
पृथ्वी पर लक्ष्मी का प्रकट होना
गंगा, सरस्वती और लक्ष्मी का विवाद
ब्रह्मवैवर्त पुराण में वर्णन मिलता है कि गंगा, सरस्वती और लक्ष्मी – तीनों ही भगवान विष्णु की पत्नियां थीं। एक बार गंगा जी ने मुस्कुराकर विष्णु की ओर देखा। यह दृश्य सरस्वती जी सहन न कर सकीं। उन्होंने आरोप लगाया कि भगवान विष्णु गंगा और लक्ष्मी से अधिक स्नेह करते हैं, जबकि उनके साथ अन्याय करते हैं।
इस बात पर सरस्वती और गंगा के बीच वाद-विवाद बढ़ गया। लक्ष्मी जी ने बीच-बचाव करने का प्रयास किया, लेकिन सरस्वती ने क्रोध में आकर लक्ष्मी को ही श्राप दे डाला। गंगा ने भी पलटकर सरस्वती को श्राप दे दिया।
शाप और उसका परिणाम
इन शापों के चलते गंगा और सरस्वती दोनों को मृत्युलोक में नदी रूप में प्रवाहित होना पड़ा। गंगा राजा भागीरथ की तपस्या से पृथ्वी पर आईं और सरस्वती भी नदी रूप में भारत भूमि पर अवतरित हुईं।
लक्ष्मी जी को भी श्राप का प्रभाव झेलना पड़ा। भगवान विष्णु ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे अपने अंश से पृथ्वी पर पद्मावती नदी और तुलसी वृक्ष बनकर अवतरित होंगी और कलियुग में भक्तों का उद्धार करेंगी।
आज भी जीवित है लक्ष्मी का अंश
आज भी भारत की पवित्र भूमि पर तुलसी और पद्मावती नदी, लक्ष्मी जी के अंश स्वरूप मानी जाती हैं।
जो भक्त तुलसी की पूजा करता है, उसे सुख-सौभाग्य की प्राप्ति होती है।
और जो पद्मावती नदी में स्नान करता है, उसका जीवन पापों से मुक्त होकर समृद्ध होता है।
निष्कर्ष
लक्ष्मी जी की कथा केवल पुराणों की कहानी नहीं, बल्कि जीवन का संदेश है। यह हमें सिखाती है कि समृद्धि तभी आती है जब हम श्रद्धा और संतुलन से जीवन जीते हैं। अहंकार और अपमान से लक्ष्मी रूठ जाती हैं, लेकिन भक्ति और विनम्रता से वे पुनः प्रसन्न होकर आशीर्वाद देती हैं।
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