करकचतुर्थी, जिसे आमतौर पर करवाचौथ कहा जाता है, विशेष रूप से महिलाओं द्वारा मनाया जाने वाला व्रत है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदयव्यापिनी चौथी तिथि को रखा जाता है। यदि उस दिन चन्द्रोदयव्यापिनी न हो, तो ‘मातृविद्धा प्रशस्यते’ के अनुसार पूर्वनिर्धारित दिन को व्रत करना चाहिए।
करवाचौथ व्रत का महत्व
इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति की लंबी उम्र और सौभाग्य की प्राप्ति है। इसे विशेषकर सौभाग्यवती महिलाएँ और उसी वर्ष विवाहित हुई कन्याएँ करती हैं। पुराणों में इस व्रत की कथा वीरवती नामक ब्राह्मणी पुत्री से जुड़ी हुई है, जिसने अपने पति के शीघ्र दर्शन के लिए इस व्रत का पालन किया और अंततः उसका सौभाग्य बना रहा।
व्रत का संकल्प और तैयारी
व्रती को सुबह स्नान और नित्यकर्म करने के बाद संकल्प लेना चाहिए:
"मम सुखसौभाग्यपुत्रपौत्रादि- सुस्थिरश्रीप्राप्तये करकचतुर्थीव्रतमहं करिष्ये।"
इसके बाद सफेद मिट्टी की वेदी बनाकर पीपल के वृक्ष का चित्रांकन किया जाता है। व्रत के दौरान शिव-शिवा और स्वामी कार्तिक की मूर्ति या चित्र स्थापित करके पूजा की जाती है।
पूजा विधि और नैवेद्य
पूजन में षोडशोपचार विधि अपनाई जाती है। इसमें व्रती शिवा (पार्वती) का विशेष पूजन करती हैं। मंत्रों के उच्चारण इस प्रकार हैं:
नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संततिं शुभाम्।
नमः शिवाय – शिव का पूजन
षण्मुखाय नमः – स्वामी कार्तिक का पूजन
नैवेद्य के रूप में काली मिट्टी के कच्चे करवे या घी में सेंके हुए और खांड मिले आटे के करवे अर्पित किए जाते हैं। इस व्रत में १३ करवे, १ लोटा जल, १ वस्त्र और १ विशेष करवा पति के माता-पिता को दान में दिया जाता है।
पूजा और नैवेद्य अर्पित करने के बाद चन्द्रमा को अर्घ्य देना व्रत का विशेष हिस्सा है। व्रती केवल चन्द्रमा उदय होने के बाद भोजन करती हैं।
करकचतुर्थी की कथा
कथा के अनुसार, शाकप्रस्थपुर में ब्राह्मण की विवाहित पुत्री वीरवती ने करकचतुर्थी का व्रत किया। नियम था कि चन्द्रोदय के बाद ही भोजन किया जाए, लेकिन वह अत्यंत भूखी हो गई। तब उसके भाई ने पीपल के वृक्ष के पीछे चाँद का सुंदर प्रकाश दिखाकर उसे भोजन कराया। इसके बाद उसका पति तुरंत उसे देख पाया। वीरवती ने बारह महीने तक लगातार करकचतुर्थी का व्रत किया और उसका पति पुनः उसके पास लौट आया।
निष्कर्ष
करकचतुर्थी व्रत न केवल पति की लंबी उम्र और सौभाग्य के लिए किया जाता है, बल्कि यह भक्तिभाव, समर्पण और पारिवारिक प्रेम का प्रतीक भी है। यह व्रत आज भी भारतीय समाज में महिलाओं के जीवन में विशेष महत्व रखता है।
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