|| शुभ नवरात्रि ||
मां दुर्गा की उपासना के पावन पर्व नवरात्रि के शुभ अवसर आप सभी को अनंत शुभकामनाएं।
यह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लेकर राम नवमी तक चलता है।
इन दिनों भगवती दुर्गा तथा कन्या पूजन का बड़ा महत्व है।
प्रतिपदा के ही दिन से घट-स्थापना तथा जौ बोने की क्रिया भक्तों द्वारा सम्पादित की जाती है।
‘दुर्गा सप्तशती’ के पाठ का भी विधान है।
नौ दिन पाठ के अनन्तर हवन तथा ब्राह्मण भोजन कराना वांछनीय है।
कथा
प्राचीन काल में एक सुरथ नामक राजा थे।
इनकी उदासीनता से लाभ उठाकर शत्रुओं ने इन पर चढ़ाई कर दी।
परिणाम यह हुआ कि मंत्री लोग राज के साथ विश्वासघात करके शत्रु पक्ष से मिल गये।
इस प्रकार राजा की पराजय हुई, और वे दुःखी तथा निराश होकर तपस्वी वेष में वन में निवास करने लगे।
उसी वन में उन्हें समाधि नाम का वणिक मिला, जो अपने स्त्री पुत्रों के दुव्र्यवहार से अपमानित होकर वहां निवास करता था
दोनों में परस्पर परिचय हुआ। तदनन्तर वे महर्षि मेध के आश्रम में पहुंचे। महामुनि मेधा के द्वारा आने का कारण पूछने पर दोनों ने बताया कि,
यद्यपि हम दोनों स्वजनों से अत्यन्त अपमानित तथा तिरस्कृत हैं फिर भी उनके प्रति मोह नहीं छूटता, इसका क्या कारण है?
महर्षि मेधा ने यह उपदेश दिया कि मन शक्ति के आधीन होता है। आदि शक्ति भगवती के दो रूप हैं- विद्यर और अविद्या।
प्रथम ज्ञान स्वरूप है तथा अज्ञान स्वरूपा। अविद्या (अज्ञान) के कारण रूप में उपासना करते हैं, उन्हें वे विद्या स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं।
इतना सुनकर राजा सुरथ ने प्रश्न किया- है महर्षि देवी कौन हैं उनका जन्म कैसे हुआ।
महामुनि बोले-राजन्! आप जिस देवी के विषय में प्रश्न कर रहे हैं, वह नित्य-स्वरूपा तथा विश्श्वव्यापिनी हैं उसके आविर्भाव के कई प्रकार हैं,
जिसे मैं बताता हैं, ‘कल्पांत के समय महा प्रलय होती है उसी समय जब विष्णु भगवान क्षीर सागर में अनन्त शैय्या पर शयन की रहे थे तभी
उनके दोनों कर्ण कुहरों से दो दैत्य मधु तथा कैटभ उत्पन्न हुए धरती पर चरण रखते ही वे दोनों विष्णु नाभि-कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा
को मारने दौड़े।
उनके इस भयानक रूप को देखकर ब्रह्मा जी ने अनुमान लगाया कि विष्णु के सिवा मेरा कोई शरण नहीं।
किन्तु विडम्बना यह थी कि भगवान इस अवसर पर सो रहे थे।
तब विष्णु भगवान को जगाने हेतु उनके नयनों में निवास करने वाली योग निद्रा का स्तवन किया।
परिणामतः तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान के नेत्र, नासिका, मुख तथा हृदय से निःसृत होकर अराधक (ब्रह्मा) के सामने खड़ी हो गई।
योगनिद्रा के निकलते ही भगवान विष्णु जाग उठे।
भगवान् विष्णु तथा उन राक्षसों में 5 हजार वर्षों तक यु़़़़़़़़़द्ध हुआ।
अंत में दोनों राक्षसों ने भगवान् की वीरता से संतुष्ट होकर वर मांगने को कहा।
भगवान् बोले -यदि तुम दोनों की मृत्यु मेरे ही हाथों हो!“ एवमस्तु!“ कहकर उन राक्षसों ने दानशीलता का परिचय दिया।
अन्त में वे दोनों भगवान् विष्णु द्वारा मारे गये।
ऋषि बोले-अब बार देवताओं के स्वामी इन्द्र तथा दैत्यों के स्वामी महिषासुर से सौ वर्षों तक घनघोर संग्राम हुआ।
इस युद्ध में देवराज इन्द्र की पराजय हुई और महिषासुर इन्द्रलोक का राजा बन बैठा।
तब हारे हुये देवगण ब्रह्मा जी को आगे करके भगवान् शंकर तथा विष्णु के पास गये।
देवताओं की इस निराशापूर्ण वाणी को सुनकर विष्णु तथा शंकर को महान क्रोध आया।
भगवान् विष्णु के मुख तथा ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि के शरीर से एक पूंजीभूत तेज निकला, जिससे दिशायें जलने लगीं।
अन्त में यही तेज एक देवी के रूप में परिणित हो गया।
देवी ने सभी देवताओं से आयुध, शक्ति तथा आभूषण प्राप्त कर उच्च-स्वर से अट्टहासयुक्त गगनभेदी गर्जना की।
जिससे पृथ्वी, पर्वत आदि डोलने लगे तथा संसार में हलचल मच गई।
क्रोधित महिषासुर दैत्य सेना का व्यूह बनाकर इस सिंहनाद की ओर दौड़ा।
आगे देखता हे कि देवी की प्रभा से तीनों लोक आलोकित हैं।
महिषासुर अपना समस्त बल, छल-छद्म लगाकर हार गया परन्तु देवी के सामने उसकी एक न चली।
अन्त में वह देवी के हाथों मारा गया।
आगे चलकर यही देवी शुम्भ तथा निशुम्भ नामक असुरों का वध करने के लिए गौरी देवी के शरीर से उत्पन्न हुईं।
इन सब उपाख्यानों को सुनाकर मेधा ऋषि ने राजा सुरथ तथा वणिक् से देवी स्तवन की विधिवत् व्याख्या की जिसके प्रभाव से दोनों
एक नदी तट पर जाकर तपस्या में लीन हो गये।
तीन वर्षोपरान्त दुर्गा जी ने प्रकट होकर उन दोनों को आशीर्वाद दिया।
जिससे वणिक् सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्म-चिन्तन में लग गया तथा राजा ने शत्रुओं को जीतकर अपना खोया राज वैभव पुनः प्राप्त कर लिया।
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