Saturday, May 31, 2025

1 जून का दिन: विंध्यवासिनी देवी मंदिर में शक्ति के अनोखे दर्शन

2025 में, विंध्यवासिनी पूजा 1 जून को होगी।


उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित विंध्याचल एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है, जहाँ माँ दुर्गा के एक दिव्य रूप विंध्यवासिनी देवी का मंदिर स्थित है। यह मंदिर श्रद्धालुओं के लिए अत्यंत पूजनीय है और 51 शक्तिपीठों में इसकी विशेष गणना होती है। देवी को विंध्य क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी भी कहा जाता है।

स्थान और पहुँच


विंध्यवासिनी देवी मंदिर, मिर्जापुर शहर से लगभग 6-8 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान उत्तरी रेलवे लाइन पर स्थित है, और नजदीकी रेलवे स्टेशन विंध्याचल मात्र छह किलोमीटर दूर है। स्टेशन से लगभग डेढ़ किलोमीटर पैदल चलकर गंगा तट और वहाँ से आधा किलोमीटर की दूरी पर मंदिर स्थित है। मिर्जापुर से मंदिर तक पक्की सड़क भी बनी हुई है।

विंध्यवासिनी देवी का स्वरूप और महत्त्व


विंध्यवासिनी देवी को योगमाया, महामाया, और एकानंशा के नामों से भी जाना जाता है। यह मंदिर एक त्रिकोण यन्त्र पर स्थित है, जो तंत्र साधना की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार जब कंस ने यशोदा के गर्भ से जन्मे कृष्ण को मारने का प्रयास किया, तब उसी समय माँ दुर्गा का रूप प्रकट हुआ और वे विंध्याचल पर्वत पर निवास करने लगीं।

त्रिकोण यात्रा: तीन प्रमुख शक्तिपीठ

 विंध्याचल में तीन प्रमुख देवी मंदिरों के दर्शन को मिलाकर की जाने वाली यात्रा को त्रिकोण यात्रा कहते हैं। ये तीनों मंदिर हैं:

  1. विंध्यवासिनी देवी मंदिर
    यह मंदिर ऊँचे स्थान पर बसा हुआ है। माँ दुर्गा की ढाई हाथ ऊँची सिंह पर आरूढ़ मूर्ति यहाँ विराजमान है। मंदिर में महाकाली, बारह भुजा देवी, और धर्मध्वजा देवी की भी मूर्तियाँ हैं।

  2. महाकाली देवी (काली खोह)
    यह मंदिर वास्तव में चामुण्डा देवी को समर्पित है। यह विंध्याचल से तीन किलोमीटर दूर काली खोह नामक स्था   न पर स्थित है। यहाँ देवी की मूर्ति छोटी है लेकिन मुख बड़ा है। पास में भैरव जी का मंदिर भी है।

  3. अष्टभुजा देवी मंदिर
    यह मंदिर काली खोह से डेढ़ किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर स्थित है। कुछ श्रद्धालु इन्हें महा सरस्वती का स्वरूप मानते हैं। इस स्थान से गंगा का विहंगम दृश्य दिखाई देता है।

नवरात्रि और धार्मिक आयोजन


नवरात्रि के अवसर पर यहाँ विशाल मेला लगता है, जिसमें दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। सैंकड़ों ब्राह्मण यहाँ दुर्गा पाठ करते हैं, जिससे पूरा क्षेत्र भक्तिमय वातावरण में गूंज उठता है। यहाँ चार बड़ी धर्मशालाएं हैं और स्थानीय पंडे श्रद्धालुओं को अपने घरों में ठहराते हैं।

निष्कर्ष


विंध्याचल का यह पावन स्थल न केवल देवी उपासकों के लिए विशेष स्थान रखता है, बल्कि यह शक्ति की उपासना, आस्था और संस्कृति का अद्वितीय संगम भी है। अगर आप कभी आध्यात्मिक शांति और ऊर्जा की खोज में हों, तो विंध्यवासिनी देवी के चरणों में जरूर आइए। #VindhyavasiniPuja #VindhyachalDarshan #MaaVindhyavasini #DeviBhakti #ShaktiPeeth #धार्मिक_अनुष्ठान  #हिन्दू_धर्म #पूजा_विधि #भक्ति #धार्मिक #आध्यात्मिकता #सनातनधर्म #SanatanDharma #हिन्दूधर्म #सनातन #पवित्रता #ध्यान #मंत्र #पूजा #व्रत #धार्मिकअनुष्ठान #संस्कार #ऋभुकान्त_गोस्वामी #RibhukantGoswami #Astrologer #Astrology #LalKitab #लाल_किताब #PanditVenimadhavGoswami

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1 जून 2025 को अरण्य षष्ठी: बच्चों की खुशहाली के लिए भगवान स्कंद की आराधना

 अरण्य षष्ठी, जिसे स्कंद षष्ठी या जमाई षष्ठी के नाम से भी जाना जाता है, एक धार्मिक पर्व है जो विशेष रूप से बच्चों की सेहत, सुरक्षा और सुख-समृद्धि के लिए मनाया जाता है। यह पर्व शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को आता है और भगवान कार्तिकेय (स्कंद) की पूजा के रूप में मनाया जाता है।

📅 तिथि:

2025 में अरण्य षष्ठी 1 जून, रविवार को मनाई जाएगी। यह तिथि ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी को आती है।




🔱 अरण्य षष्ठी का धार्मिक महत्व:

भगवान कार्तिकेय, जो भगवान शिव और देवी पार्वती के पुत्र हैं, को इस दिन पूजा जाता है। यह व्रत बच्चों की लंबी उम्र, अच्छे स्वास्थ्य और जीवन की समृद्धि के लिए रखा जाता है।

अरण्यषष्ठी व्रत के विषय में राजमार्तण्ड (सम्वत 1396) ग्रंथ में उल्लेख मिलता है कि इस दिन स्त्रियाँ अपने हाथों में पंखे और तीर लेकर वन में घूमती हैंगदाधरपद्धति (कालसार, ८३) में इसे स्कन्दषष्ठी भी कहा गया है। यह एक विशेष तिथि-व्रत है, जिसमें विन्ध्यवासिनी देवी और भगवान स्कन्द (कार्तिकेय) की पूजा की जाती है।

इस व्रत का वर्णन अन्य ग्रंथों जैसे कृत्यरत्नाकर (१८५), वर्षक्रियाकौमुदी (२७९) और कृत्यतत्त्व (४३०-४३१) में भी मिलता है। इस व्रत को करने वाले व्यक्ति विशेष रूप से अपने बच्चों के अच्छे स्वास्थ्य और लंबी आयु के लिए यह व्रत करते हैं। वे इस अवसर पर कमल की नाल, कन्दमूल (जड़ वाले कंद) और फलों का सेवन करते हैं।

🛕 पूजा विधि (पूजन की प्रक्रिया):

1. प्रातःकाल की तैयारी:

  • सूर्योदय से पहले स्नान करें और स्वच्छ वस्त्र धारण करें।

  • घर के पूजा स्थान को साफ करके भगवान स्कंद की मूर्ति या चित्र स्थापित करें।

2. पूजन सामग्री और विधि:

  • भगवान को पंचामृत (दूध, दही, शहद, घी और शक्कर) से स्नान कराएं।

  • चंदन और हल्दी का तिलक लगाएं।

  • फूल, फल, मिठाई और घी का दीपक अर्पित करें।

  • व्रत कथा का श्रवण करें और भगवान स्कंद की आरती करें।


  • पेड़ पर धागा लपेटें और बच्चों के आरोग्य की प्रार्थना करें।

🔚 निष्कर्ष: आस्था, परंपरा और बच्चों का भविष्य

अरण्य षष्ठी केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह पारिवारिक मूल्यों, परंपराओं और संतति के कल्याण की भावना का प्रतीक  है।  


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Wednesday, May 28, 2025

29 मई को मनाया जाएगा रम्भा तृतीया व्रत: सौभाग्य, सुंदरता और संतान सुख दिलाने वाला पर्व

 भारतीय संस्कृति में व्रतों का महत्व

हमारी संस्कृति में व्रत-त्योहार केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं होते, बल्कि ये हमारे जीवन को सकारात्मक ऊर्जा, मानसिक संतुलन और पारिवारिक सुख-शांति देने वाले आध्यात्मिक उपाय भी होते हैं। इन्हीं में से एक खास व्रत है रम्भा तृतीया, जिसे कुछ क्षेत्रों में रम्भा तीज भी कहा जाता है। यह व्रत विशेष रूप से महिलाओं के लिए अत्यंत शुभ और फलदायक माना गया है।


रम्भा तृतीया व्रत कब और क्यों किया जाता है?

रम्भा तृतीया व्रत हर साल ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को मनाया जाता है, जो आमतौर पर मई या जून महीने में आती है। इस वर्ष यह व्रत 29 मई को पड़ रहा है। इस दिन महिलाएं दिनभर उपवास रखकर विधिपूर्वक पूजा करती हैं और देवी शक्ति से घर, पति और संतान सुख की प्रार्थना करती हैं।

इस व्रत की एक विशेष बात यह भी है कि इसे पूर्वविद्धा तिथि में किया जाता है, यानी यदि तृतीया तिथि एक दिन पहले सूर्योदय से पहले ही लग जाए, तो व्रत उसी दिन कर लिया जाता है।

पूजा विधि: कैसे करें रम्भा तृतीया व्रत?

1. प्रातःकाल स्नान और शुद्धता

व्रत करने वाली स्त्री को सुबह जल्दी उठकर स्नान करके शुद्ध वस्त्र धारण करना चाहिए। फिर घर के किसी पवित्र स्थान पर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठना चाहिए।

2. पाँच अग्नियों की स्थापना

व्रती को अपने पास पाँच अग्नियाँ प्रज्वलित करनी चाहिए, जो इस प्रकार हैं:

  • गार्हपत्य

  • दक्षिणाग्नि

  • सभ्य

  • आहवनीय

  • भास्कर

इन अग्नियों के मध्य में पूर्वाभिमुख होकर पद्मासन में बैठें।

3. देवी की मूर्ति या चित्र की स्थापना

अपने सामने एक देवी की मूर्ति या चित्र रखें जो:

  • चार भुजाओं वाली हो

  • आभूषणों से सुसज्जित हो

  • जटा-जूट और मृगचर्म धारण किए हुए हों

यह रूप शक्ति की सम्पूर्णता का प्रतीक माना गया है।

मंत्र और आहुति

अब देवी के विभिन्न रूपों की पूजा करें और निम्न मंत्रों का उच्चारण करें:

  • "ॐ महाकाल्यै नमः"

  • "ॐ महालक्ष्म्यै नमः"

  • "ॐ महासरस्वत्यै नमः"

इसके अलावा महामाया, महादेवी, महिषासुर मर्दिनी, गंगा, यमुना, नर्मदा, वैतरणी आदि शक्तियों का भी पूजन करें।

फिर इन नामों के साथ "नमः" की जगह "स्वाहा" बोलते हुए 108 बार आहुति दें। यह क्रिया देवी को आह्वान और आभार प्रकट करने के लिए की जाती है।

अर्पण और प्रार्थना

पूजा के अंत में देवी को फल, पुष्प और नैवेद्य अर्पित करें। फिर यह मंत्र बोलें:

"त्वं शक्तिस्त्वं स्वधा स्वाहा त्वं सावित्री सरस्वती ।
पतिं देहि गृहं देहि सुतान् देहि नमोऽस्तु ते ॥"

इस प्रार्थना के माध्यम से देवी से उत्तम पति, सुखद गृहस्थ जीवन और संतान सुख की कामना की जाती है।

पौराणिक कथा और महत्व

यह व्रत सबसे पहले देवी पार्वती ने अपनी माता की आज्ञा से किया था। उन्होंने इस व्रत के प्रभाव से भगवान शिव को पति रूप में प्राप्त किया और उन्हें सुख, समृद्धि व संतान सुख प्राप्त हुआ।

इसी कारण यह व्रत आज भी महिलाओं के लिए अत्यंत शुभ माना जाता है। जो स्त्री श्रद्धा और नियम से यह व्रत करती है, उसके जीवन में गृहस्थ सुख, सौंदर्य और सौभाग्य स्थायी हो जाते हैं।

निष्कर्ष

रम्भा तृतीया केवल एक परंपरा नहीं, बल्कि एक ऐसी आध्यात्मिक साधना है जो महिलाओं को मानसिक शांति, आंतरिक शक्ति और पारिवारिक संतुलन देती है। यह व्रत एक ओर हमें सनातन परंपरा से जोड़ता है और दूसरी ओर हमारे जीवन को सुख, शांति और समृद्धि से भर देता है।

इस 29 मई को आप भी श्रद्धा से रम्भा तृतीया व्रत करें और देवी शक्ति का आशीर्वाद प्राप्त करें।

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Saturday, May 24, 2025

27 मई को क्यों खास होती है ज्येष्ठ अमावस्या? जानिए भावुका अमावस्या का महत्व

 हिंदू पंचांग में हर अमावस्या का एक खास महत्व होता है, लेकिन भावुका अमावस्या, जिसे ज्येष्ठ अमावस्या या दर्श अमावस्या भी कहा जाता है, कुछ ज्यादा ही खास होती है। यह दिन न सिर्फ पूजा-पाठ का समय होता है बल्कि आत्म-चिंतन और सकारात्मक ऊर्जा को अपनाने का एक अच्छा मौका भी है।



भावुका अमावस्या कब मनाई जाती है?

यह अमावस्या ज्येष्ठ महीने के कृष्ण पक्ष में आती है। इस साल (2025) यह तिथि 27 मई को पड़ी थी। चूंकि यह तिथि चंद्रमा के पूर्ण अभाव वाली रात होती है, तो इसे अंधकारमयी और पवित्र दोनों माना जाता है।

इस दिन का धार्मिक महत्व

1. पवित्र स्नान और दान का महत्व

ज्योतिष और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, इस दिन पवित्र नदियों—जैसे गंगा, यमुना या नर्मदा—में स्नान करने से शरीर और मन की शुद्धि होती है। लोग इस दिन अन्न, वस्त्र, धन और जरूरत की चीजें दान करते हैं। यह विश्वास है कि ऐसा करने से पापों का क्षय होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है।

"हर दान में एक भावना होती है, और अमावस्या पर किया गया दान आत्मा को हल्का करता है।"

2. पितरों को समर्पित दिन

भावुका अमावस्या को पितृ तर्पण और श्राद्ध कर्म के लिए भी बहुत शुभ माना जाता है। लोग अपने पितरों की शांति के लिए पूजा करते हैं और ब्राह्मणों को भोजन करवाते हैं। ऐसा करने से पितृ दोष से मुक्ति मिलती है और पारिवारिक जीवन में सुख-शांति आती है।

3. व्रत और मानसिक अनुशासन

कई श्रद्धालु इस दिन व्रत रखते हैं। यह उपवास न केवल धार्मिक कारणों से किया जाता है, बल्कि यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी माना गया है। व्रत के दौरान ध्यान, मंत्र जाप, और आत्मचिंतन किया जाता है, जिससे मानसिक शांति मिलती है।

4. सकारात्मक ऊर्जा का आमंत्रण

अमावस्या को अक्सर नकारात्मकता से जुड़ा दिन माना जाता है, लेकिन यही तो समय होता है जब इंसान खुद को भीतर से मजबूत बना सकता है। इस दिन अगर हम सकारात्मक कार्य करें—जैसे जरूरतमंदों की मदद करना, ध्यान करना, और बुरी आदतों से दूर रहना—तो ये अंधकार भी एक नई रोशनी का रास्ता बन सकता है।

कुछ और बातें जो जाननी चाहिए

  • इस दिन चंद्रमा नहीं दिखाई देता, इसलिए इसे “अंधेरी रात” कहा जाता है।

  • यह दिन तंत्र-साधना और शक्ति उपासना के लिए भी उपयुक्त माना जाता है।

  • ध्यान और साधना से इस दिन आत्मिक शुद्धि और शांति प्राप्त की जा सकती है।

अंत में एक छोटी सी बात

भावुका अमावस्या सिर्फ एक तारीख नहीं है—यह एक अवसर है खुद से जुड़ने का, अपने पूर्वजों को याद करने का और जीवन में सकारात्मकता लाने का। अगर हम हर साल इस दिन कुछ देर शांत बैठकर अपने अंदर झांक लें, तो शायद हमारी ज़िंदगी थोड़ी और बेहतर बन सकती है।


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Thursday, May 22, 2025

🌳 26 मई को मनाएं वट सावित्री व्रत – जानिए पूजा विधि, कथा और जरूरी नियम

 भारत में हर पर्व की अपनी एक गहरी मान्यता होती है, और उन्हीं में से एक है वट सावित्री व्रत, जो खास तौर पर महिलाओं द्वारा मनाया जाता है। यह व्रत पति की दीर्घायु, सौभाग्य और सुखद वैवाहिक जीवन के लिए किया जाता है।

वैसे तो ये परंपरा वर्षों से चलती आ रही है, लेकिन आज भी इसकी श्रद्धा में कोई कमी नहीं आई है। चलिए जानते हैं इस खास दिन से जुड़ी पूरी जानकारी—उसकी मान्यता, पूजा विधि और कुछ खास बातें जो आपको जरूर ध्यान में रखनी चाहिए।



व्रत कब और क्यों रखा जाता है?

वट सावित्री व्रत ज्येष्ठ महीने की अमावस्या तिथि को रखा जाता है। इस दिन वट वृक्ष यानी बरगद के पेड़ की पूजा की जाती है।

इस व्रत की खास बात ये है कि इसमें महिलाएं निर्जल व्रत रखकर भगवान से अपने पति की लंबी उम्र और अच्छे स्वास्थ्य की कामना करती हैं।

पौराणिक कथा का आधार

इस व्रत के पीछे एक बेहद प्रेरणादायक कथा है—सावित्री और सत्यवान की कहानी। कहा जाता है कि सावित्री ने अपने पति सत्यवान को यमराज से वापस पाने के लिए घोर तप किया और उनकी अटल भक्ति से यमराज भी पिघल गए।

यह घटना बरगद के पेड़ के नीचे घटी थी, इसलिए वट वृक्ष की पूजा इस दिन का मुख्य अंग बन गई।

व्रत का महत्व – सिर्फ विवाहित नहीं, कन्याएं भी रखती हैं

आमतौर पर यह व्रत विवाहित महिलाएं करती हैं, लेकिन कुछ स्थानों पर कुंवारी लड़कियां भी इसे मनचाहा वर पाने की कामना से करती हैं। यह व्रत न केवल एक धार्मिक कर्तव्य है बल्कि यह जीवनसाथी के लिए सच्चे प्रेम और समर्पण का प्रतीक भी माना जाता है।

पूजा कैसे करें? – सरल विधि

वट सावित्री व्रत की पूजा विधि बहुत विस्तृत नहीं है, लेकिन ध्यान से करने योग्य है।

1. सुबह जल्दी उठें

स्नान के बाद साफ और शुभ रंगों के कपड़े पहनें—जैसे लाल या पीला। काले या नीले रंग के कपड़े पहनने से परहेज़ करें।

2. व्रत का संकल्प लें

एक शांत मन से व्रत का संकल्प लें और दिन भर संयम रखें।

3. वट वृक्ष की पूजा करें

बरगद के पेड़ की जड़ में जल अर्पित करें। कच्चा धागा या कलावा लेकर पेड़ के चारों ओर सात बार लपेटें और परिक्रमा करें।

4. कथा श्रवण करें

वट सावित्री की कथा सुनना या पढ़ना इस दिन का मुख्य कार्य होता है।  सावित्रीकी संक्षिप्त कथा इस प्रकार है—यह मद्रदेशके राजा अश्वपति की पुत्री थी। द्युमत्सेनके पुत्र सत्यवान्से इसका विवाह हुआ था। विवाह के पहले नारदजीने कहा था कि सत्यवान् सिर्फ सालभर जीयेगा। किंतु दृढव्रता सावित्री ने अपने मनसे अङ्गीकार किये हुए पतिका परिवर्तन नहीं किया और एक वर्षतक पातिव्रत्यधर्ममें पूर्णतया तत्पर रहकर अंधे सास-ससुरकी और अल्पायु पतिकी प्रेमके साथ सेवा की। अन्तमें वर्ष समाप्ति के दिन (ज्ये० शु० १५ को) सत्यवान् और सावित्री समिधा लाने को वनमें गये। वहाँ एक विषधर सर्पने सत्यवान्‌ को डस लिया । वह बेहोश होकर गिर गया। उसी अवस्था में यमराज आये और सत्यवान्के सूक्ष्म शरीर को ले जाने लगे। किंतु फिर उन्होंने सती सावित्री की प्रार्थना से प्रसन्न होकर सत्यवान्को सजीव कर दिया और सावित्री को सौ पुत्र होने तथा राज्यच्युत अंधे सास-ससुरको राज्यसहित दृष्टि प्राप्त होने का वर दिया।


5. पूजा की सामग्री पास रखें

धूप, दीप, फूल, फल, हल्दी, अक्षत, रोली, मिठाई, नारियल, दूध, दही, घी, कपूर—इन सभी से पूजा करें।

व्रत के दिन क्या ना करें?

  • इस दिन बाल या नाखून नहीं काटने चाहिए।

  • तामसिक भोजन यानी मांस, प्याज, लहसुन, आदि से परहेज़ करें।

  • काले, नीले, या सफेद रंग की चूड़ी या बिंदी पहनने से बचें।

  • पति-पत्नी को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।


अंत में

वट सावित्री व्रत केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि पति-पत्नी के रिश्ते की मजबूती और नारी शक्ति के समर्पण का प्रतीक है।

अगर आप इस बार ये व्रत कर रही हैं या करने की सोच रही हैं, तो पूरे मन से करें। मन की सच्चाई से किया गया हर कार्य फल जरूर देता है।

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कल्कि जयंती 2025: भगवान कल्कि के आगमन की प्रतीक्षा का पावन पर्व

  हर वर्ष सावन मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को बड़े श्रद्धा और भक्ति भाव से कल्कि जयंती मनाई जाती है। यह दिन भगवान विष्णु के दसवें और अ...