वत्स द्वादशी क्या है?
वत्स द्वादशी, जिसे बछ बारस, बछद्वा, ओक दुआस या बलि द्वादशी भी कहा जाता है, संतान की प्राप्ति, उनकी रक्षा और सुखी जीवन की कामना के लिए किया जाने वाला एक पवित्र व्रत है। यह व्रत विशेष रूप से पुत्रवती स्त्रियों द्वारा रखा जाता है और बहुरा चौथ तथा हरछठ की तरह पुत्र-सुख के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। महाराष्ट्र में इसे वासु बारस कहा जाता है और यह दिवाली उत्सव की शुरुआत का भी प्रतीक है।
व्रत का महत्व
संतान सुख की कामना – इस व्रत के माध्यम से संतान के दीर्घायु, स्वास्थ्य और खुशहाल जीवन की प्रार्थना की जाती है।
गाय और बछड़े की पूजा – इस दिन गाय और उसके बछड़े की पूजा होती है, क्योंकि गाय को ‘कामधेनु’ माना गया है, जो सभी इच्छाएं पूर्ण करने वाली है।
धार्मिक परंपरा – व्रत में गीली मिट्टी से गाय, बछड़ा, बाघ और बाघिन की मूर्तियां बनाकर पूजन किया जाता है।
दान का महत्व – इस दिन अंकुरित मोठ, मूंग और चने जैसे द्विदलीय अनाज का दान और सेवन शुभ माना जाता है।
वर्जित खाद्य – एक दलीय अनाज (जैसे गेहूं, जौ) और गो-दुग्ध का सेवन इस दिन वर्जित रहता है।
व्रत की तिथि 2025 में
भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की द्वादशी तिथि को यह व्रत मनाया जाता है। साल 2025 में वत्स द्वादशी का पर्व 20 अगस्त को मनाया जाएगा।
पूजन विधि
प्रातः स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
पाट पर गीली मिट्टी से गाय, बछड़ा, बाघ और बाघिन की मूर्तियां बनाएं।
नैवेद्य के रूप में अंकुरित मोठ, मूंग और चने चढ़ाएं।
एक दलीय अनाज और दूध का उपयोग न करें।
परिवार के बच्चों और गौवंश की सुख-समृद्धि की प्रार्थना करें।
वत्स द्वादशी की कथा
कहा जाता है कि एक राजा और रानी के अनेक संतान थीं। एक दिन राजा ने संन्यास लेने का विचार किया। पंडितों ने उन्हें घर पर रहकर पुण्य कार्य करने की सलाह दी और तालाब बनवाने को श्रेष्ठ बताया।
राजा ने सुंदर तालाब बनवाया, परंतु पानी नहीं भरा। पंडितों ने कहा कि जल आने के लिए कुबरे कुत्ते, भूरी बिल्ली, ज्येष्ठ पुत्र के बेटे और अगले हल की गोंईं की बलि देनी होगी। राजा अपने बेटे के इकलौते पुत्र की बलि के लिए तैयार नहीं था।
बलि का दिन हरछठ तय हुआ। राजा ने बहू को मायके भेज दिया। वहां उसकी मां ने सच्चाई बताई और उसे ओक दुआस का पूजन करने को कहा।
बहू ने ससुराल लौटकर तालाब के पास स्नान किया, मिट्टी के बाघ-बाघिन बनाए और भीगे चनों से अर्घ्य देते हुए मंत्र बोला –
"ओख मोख नदी नारु कच्छ मच्छ के बीच होइकै मोर अगले कै गोंईं उबर पार होय।"
पहले अर्घ्य से गोंईं, फिर भूरी बिल्ली और कुबरा कुत्ता और अंत में उसका पुत्र बाहर निकल आया। बहू ने पुत्र को पाकर सास-ससुर को खरी-खोटी सुनाई। राजा ने अपनी गलती मानते हुए कहा कि यह बहू का सौभाग्य है जो उसका पुत्र लौट आया। इसके बाद सब आनंदपूर्वक रहने लगे।
निष्कर्ष
वत्स द्वादशी केवल संतान-सुख के लिए ही नहीं, बल्कि पारिवारिक सौहार्द, धर्म और परंपरा के संरक्षण का प्रतीक भी है। मिट्टी की मूर्तियों, अनाज के दान और गौ-पूजन की यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है।
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