Saturday, October 04, 2025

अहोई अष्टमी व्रत: बच्चों की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए

 अहोई अष्टमी व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत विशेष रूप से माताएँ अपने बच्चों की दीर्घायु, सुरक्षा और खुशहाली के लिए करती हैं।

इस दिन माता अहोई देवी की पूजा करती हैं और बच्चों की भलाई के लिए कथा सुनती हैं। आइए जानते हैं व्रत रखने की विधि और इसकी कहानी।


अहोई अष्टमी व्रत की पूजा विधि

  1. दीवार पर अहोई माता बनाना
    शाम को तारे निकलने के बाद घर की दीवार पर अहोई माता का चित्र बनाकर पूजा करें। यदि चित्र नहीं बना पाएं तो पोस्टर या फोटो से भी पूजा हो सकती है।

  2. पानी और चाँदी की अहोई

    • एक लोटा पानी से भरें।

    • एक चाँदी की अहोई बनवाएँ और उसमें दो चाँदी के मोती डालें। यह मोती हार में लगे पेंडिल की तरह रखें।

  3. भोग और अन्य सामग्री
    पूजा में चावल, रोली, दूध-भात आदि अर्पित करें।

    • जल के लोटे पर सतिया रखें।

    • एक कटोरी में सीरा और रुपये का बायना निकालें।

    • हाथ में सात दाने गेहूँ लेकर कथा सुनें।

  4. अहोई माता को गले में पहनना
    कथा सुनने के बाद अहोई माता को गले में पहन लें। जो बायना निकाला था, उसे अपनी सासु को दें

व्रत का महत्व और समापन

  • दिवाली के बाद किसी शुभ दिन अहोई को गले से उतारें।

  • अपने बेटों की संख्या के अनुसार चाँदी के मोती अहोई में डालें।

  • अहोई को गुड़ के भोग और जल के छींटे देकर रखें।

  • चंद्रमा को अर्घ्य देकर भोजन करें।

  • इस दिन ब्राह्मणों को पेठा दान में देना शुभ माना जाता है।

यह व्रत छोटे बच्चों के सुरक्षा, स्वास्थ्य और दीर्घायु के लिए विशेष रूप से किया जाता है।

अहोई अष्टमी की कथा

बहुत समय पहले दतिया नगर में एक साहूकार चंद्रभान और उसकी पत्नी चंद्रिका रहते थे। उनके कई बच्चे हुए, लेकिन सभी छोटे उम्र में ही चल बसे।

दोनों पति-पत्नी बहुत दुःखी हुए और सोचने लगे कि उनके मरने के बाद उनका धन किसका होगा। फिर उन्होंने सब छोड़कर जंगल में रहने का निर्णय किया।

वे चलते-चलते बद्रिकाश्रम के पास एक शीतल कुंड पहुंचे। वहाँ उन्होंने सात दिन तक अन्न-जल त्यागकर साधना की। सातवें दिन आकाशवाणी हुई कि उनका दुःख पूर्व जन्म के पापों का परिणाम है।

आकाशवाणी ने कहा कि अहोई अष्टमी के दिन व्रत रखें और देवी अहोई से अपने बच्चों की लंबी उम्र की प्रार्थना करें।

व्रत के बाद वरदान

चंद्रिका ने बड़े श्रद्धा से व्रत रखा। रात्रि में साहूकार राधा-कुण्ड में स्नान करने गए। रास्ते में देवी अहोई ने उन्हें दर्शन दिए और कहा:

“साहूकार! मैं तुमसे प्रसन्न हूँ, मुझसे जो चाहो मांग लो।”

साहूकार ने बच्चों की दीर्घायु की प्रार्थना की। देवी ने आशीर्वाद दिया और कुछ समय बाद उनके पुत्र जन्मे, जो विद्वान, बलशाली और आयुष्मान बने।

व्रत का उत्सव और समापन विधि

  • यदि किसी स्त्री का बेटा हुआ है या बेटे का विवाह हो चुका है, तो व्रत की समाप्ति का उत्सव मनाएँ।

  • एक थाली में सात जगह चार पूड़ी, थोड़ा-थोड़ा सीरा, एक साड़ी, ब्लाउज और एक रुपया रखें।

  • थाली को हाथ फेरकर सासु के पाँव में अर्पित करें।

  • साड़ी और ब्लाउज सासु अपने पास रखें।

  • सीरा और पूड़ी का बायना बाँट दें। यदि पुत्री कहीं अन्य जगह हो, तो उसका बायना वहां भेजें।

निष्कर्ष

अहोई अष्टमी का व्रत बच्चों के कल्याण, सुरक्षा और दीर्घायु के लिए अत्यंत प्रभावशाली है। इस दिन की विधिपूर्वक पूजा और कथा सुनना माता-पिता के लिए एक सुखद और शुभ अनुभव बन जाता है। माता अहोई की कृपा से बच्चों के जीवन में सुख, समृद्धि और लंबी उम्र बनी रहती है। #अहोईअष्टमी #AhoiAshtamiVrat #अहोईमाताकीजय #TraditionalVrat #HinduFestivals #VratKatha #FestivalOfIndia #माताओंकाव्रत #IndianCulture #AhoiMataPuja #BachonKiSukhShanti #ReligiousStories #HinduRituals #SpiritualTraditions #DevotionAndFaith #SanatanDharma #सनातन #पवित्रता #ध्यान #मंत्र #पूजा #व्रत #धार्मिकअनुष्ठान #संस्कार #ऋभुकान्त_गोस्वामी #RibhukantGoswami #Astrologer #Astrology #LalKitab #लाल_किताब #PanditVenimadhavGoswami

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करवाचौथ – महिलाओं का विशेष व्रत

 करकचतुर्थी, जिसे आमतौर पर करवाचौथ कहा जाता है, विशेष रूप से महिलाओं द्वारा मनाया जाने वाला व्रत है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चन्द्रोदयव्यापिनी चौथी तिथि को रखा जाता है। यदि उस दिन चन्द्रोदयव्यापिनी न हो, तो ‘मातृविद्धा प्रशस्यते’ के अनुसार पूर्वनिर्धारित दिन को व्रत करना चाहिए।


करवाचौथ  व्रत का महत्व

इस व्रत का मुख्य उद्देश्य पति की लंबी उम्र और सौभाग्य की प्राप्ति है। इसे विशेषकर सौभाग्यवती महिलाएँ और उसी वर्ष विवाहित हुई कन्याएँ करती हैं। पुराणों में इस व्रत की कथा वीरवती नामक ब्राह्मणी पुत्री से जुड़ी हुई है, जिसने अपने पति के शीघ्र दर्शन के लिए इस व्रत का पालन किया और अंततः उसका सौभाग्य बना रहा।

व्रत का संकल्प और तैयारी

व्रती को सुबह स्नान और नित्यकर्म करने के बाद संकल्प लेना चाहिए:

"मम सुखसौभाग्यपुत्रपौत्रादि- सुस्थिरश्रीप्राप्तये करकचतुर्थीव्रतमहं करिष्ये।"

इसके बाद सफेद मिट्टी की वेदी बनाकर पीपल के वृक्ष का चित्रांकन किया जाता है। व्रत के दौरान शिव-शिवा और स्वामी कार्तिक की मूर्ति या चित्र स्थापित करके पूजा की जाती है।

पूजा विधि और नैवेद्य

पूजन में षोडशोपचार विधि अपनाई जाती है। इसमें व्रती शिवा (पार्वती) का विशेष पूजन करती हैं। मंत्रों के उच्चारण इस प्रकार हैं:

  • नमः शिवायै शर्वाण्यै सौभाग्यं संततिं शुभाम्।

  • नमः शिवाय – शिव का पूजन

  • षण्मुखाय नमः – स्वामी कार्तिक का पूजन

नैवेद्य के रूप में काली मिट्टी के कच्चे करवे या घी में सेंके हुए और खांड मिले आटे के करवे अर्पित किए जाते हैं। इस व्रत में १३ करवे, १ लोटा जल, १ वस्त्र और १ विशेष करवा पति के माता-पिता को दान में दिया जाता है।

पूजा और नैवेद्य अर्पित करने के बाद चन्द्रमा को अर्घ्य देना व्रत का विशेष हिस्सा है। व्रती केवल चन्द्रमा उदय होने के बाद भोजन करती हैं।

करकचतुर्थी की कथा

कथा के अनुसार, शाकप्रस्थपुर में ब्राह्मण की विवाहित पुत्री वीरवती ने करकचतुर्थी का व्रत किया। नियम था कि चन्द्रोदय के बाद ही भोजन किया जाए, लेकिन वह अत्यंत भूखी हो गई। तब उसके भाई ने पीपल के वृक्ष के पीछे चाँद का सुंदर प्रकाश दिखाकर उसे भोजन कराया। इसके बाद उसका पति तुरंत उसे देख पाया। वीरवती ने बारह महीने तक लगातार करकचतुर्थी का व्रत किया और उसका पति पुनः उसके पास लौट आया।

निष्कर्ष

करकचतुर्थी व्रत न केवल पति की लंबी उम्र और सौभाग्य के लिए किया जाता है, बल्कि यह भक्तिभाव, समर्पण और पारिवारिक प्रेम का प्रतीक भी है। यह व्रत आज भी भारतीय समाज में महिलाओं के जीवन में विशेष महत्व रखता है।

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महर्षि वाल्मीकि जयंती: आदिकवि का जीवन और प्रेरणा

 अश्विन मास की पूर्णिमा का दिन हमारे लिए विशेष महत्व रखता है। यह दिन महर्षि वाल्मीकि जयंती के रूप में मनाया जाता है। वाल्मीकि, जिन्हें आदिकवि कहा जाता है, ने हमें रामायण जैसे महान ग्रंथ से समृद्ध किया। इस दिन उनके योगदान और शिक्षाओं का स्मरण किया जाता है।


महर्षि वाल्मीकि: आदिकवि का परिचय

वाल्मीकि भारतीय साहित्य के पहले महाकवि माने जाते हैं। उन्होंने रामायण की रचना की, जो आज भी नैतिकता, धर्म और आदर्श जीवन का मार्गदर्शन करती है।

उनका जीवन अपने आप में एक प्रेरणा है। उन्होंने एक समय डाकू से संत बनने का अद्भुत सफर तय किया। यह हमें सिखाता है कि इंसान अपनी इच्छाशक्ति और लगन से किसी भी बुराई से बाहर निकल सकता है और सही मार्ग अपना सकता है।

वाल्मीकि जयंती क्यों मनाई जाती है?

1. आदिकवि का स्मरण

वाल्मीकि जयंती उनके जन्मदिन के रूप में मनाई जाती है। यह दिन हमें उनके साहित्यिक योगदान और संस्कृत साहित्य में उनके अद्वितीय स्थान की याद दिलाता है।

2. प्रेरणा का प्रतीक

महर्षि वाल्मीकि का जीवन संघर्ष और परिवर्तन की कहानी है। डाकू से संत बनने तक की उनकी यात्रा हमें सिखाती है कि किसी भी व्यक्ति का भविष्य उसकी मेहनत और निष्ठा पर निर्भर करता है।

वाल्मीकि जयंती कैसे मनाई जाती है?

1. भव्य शोभायात्राएँ

इस दिन कई स्थानों पर वाल्मीकि की मूर्ति के साथ शोभायात्राएँ निकाली जाती हैं। लोग भजन गाते हैं, श्लोक पढ़ते हैं और भक्ति भाव से इस दिन को मनाते हैं।

2. रामायण का पाठ

मंदिरों और घरों में आदिकवि वाल्मीकि के सम्मान में रामायण का पाठ किया जाता है। बच्चों और युवाओं को भी इसमें शामिल किया जाता है, ताकि वे ग्रंथ की महिमा और नैतिक संदेश समझ सकें।

3. मंदिरों में पूजा

भक्त अपने नजदीकी वाल्मीकि मंदिरों में जाकर दर्शन करते हैं। मंदिरों को फूलों, दीपों और रंगीन सजावट से सजाया जाता है।

4. सार्वजनिक कार्यक्रम और रैलियाँ

इस अवसर पर कई सांस्कृतिक रैलियाँ और कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। ये समाज में नैतिक और आध्यात्मिक संदेश फैलाने का काम करते हैं।

वाल्मीकि जयंती का संदेश

वाल्मीकि जयंती हमें यह याद दिलाती है कि जीवन में कभी भी बदलाव संभव है। बुराई से अच्छाई की ओर बढ़ने का रास्ता हमेशा खुला है। उनका जीवन और कृति हमें नैतिकता, धैर्य और भक्ति का महत्व सिखाती है।

निष्कर्ष:
महर्षि वाल्मीकि जयंती केवल एक धार्मिक पर्व नहीं है, बल्कि यह प्रेरणा का प्रतीक है। यह दिन हमें अपने जीवन को सुधारने और अपने कर्मों में सुधार लाने की सीख देता है। इस पूर्णिमा पर, आइए हम उनके आदर्शों को अपनाएँ और जीवन को सही दिशा में ले जाएँ।

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शरद पूर्णिमा: कोजाग्रत व्रत

 शरद पूर्णिमा आश्विन मास की पूर्णिमा को आती है। इसे कोजाग्रत व्रत भी कहा जाता है। इस दिन चन्द्रमा और भगवान सत्यनारायण का पूजन करना विशेष फलदायी माना गया है। शास्त्रों में इसे “कृत्यनिर्णयामृत” के अनुसार भी महत्व दिया गया है। इस दिन किए गए अनुष्ठान और पूजा में विशेष रूप से सफलता और समृद्धि प्राप्त होती है।


शरद पूर्णिमा का महत्व

  • इस दिन कोई भी अनुष्ठान या पूजा कराएं तो उसका फल निश्चित रूप से मिलता है।

  • तीसरे पहर हाथियों की आरती करने से अत्यंत शुभ फल प्राप्त होता है।

  • अपने इष्ट देव की भक्ति और जागरण करने वाले भक्तों को धन-समृद्धि की प्राप्ति होती है।

  • यह व्रत विशेष रूप से लक्ष्मी प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ माना गया है।

पूजा और व्रत की विधि

सुबह का पूजन

  • सुबह आराध्य देव को सफेद वस्त्र और आभूषणों से सजाकर षोडशोपचार विधि से पूजन करें।

  • कांसे के पात्र में घी भरकर उसमें थोड़ा सुवर्ण डालकर ब्राह्मण को दान दें। ऐसा करने से व्यक्ति ओजस्वी और तेजस्वी बनता है।

अपराह्न का पूजन

  • अपराह्न में हाथियों की आरती (नीराजन) करना उत्तम माना गया है।

  • अन्य प्रकार के अनुष्ठान भी इस दिन करने से पूर्णतः सफल होते हैं।

रात का जागरण और खीर अर्पण

  • रात में उत्तम गाय के दूध की खीर बनाएं, उसमें घी और सफेद खाँड मिलाएं।

  • आधी रात के समय भगवान को अर्पित करें।

  • पूर्ण चन्द्र जब मध्य आकाश में स्थित हो, तब उसकी पूजा करें।

  • खीर का प्रसाद अगले दिन ग्रहण करें।

  • घर में दीपक जलाकर दीपावली की तरह रोशनी करना भी शुभ माना जाता है। दीपों की संख्या कम से कम 100 और अधिकतम एक लाख तक रखी जा सकती है।

स्त्रियों की परंपरा

  • स्त्रियाँ इस दिन पाटे पर पानी का लोटा रखती हैं।

  • एक गिलास में गेहूँ भरकर उसमें रुपया रखें।

  • 13 गेहूँ के दाने लेकर कथा सुनें।

  • गिलास और रुपया किसी बड़े या बुजुर्ग को पैर छूकर दे दें।

  • रात में उसी जल से चन्द्रमा को अर्घ्य दें और भोजन करें।

  • राजस्थान में मौसमी फलों के टुकड़े खीर के साथ चन्द्रमा की रोशनी में रखे जाते हैं। इसे अमृत बरसने जैसा माना जाता है।

  • चाँदनी रात में सूई में धागा पिरोना भी शुभ माना जाता है, ऐसा करने से पूरे वर्ष आँखों की रोशनी बनी रहती है।

शरद पूर्णिमा की कथा

एक साहूकार की दो पुत्रियाँ थीं।

  • पहली पुत्री हर साल व्रत पूरी श्रद्धा से करती थी।

  • दूसरी पुत्री व्रत अधूरा करती थी।

  • जिसके कारण उसकी संताने जन्म लेने के तुरंत बाद मर जाती थीं।

पंडितों ने बताया कि अधूरा व्रत करने से यह कष्ट आता है।

इसके बाद दूसरी पुत्री ने व्रत पूरा करना शुरू किया। फिर भी उसके पुत्र का जन्म होते ही मृत्यु हो गई। उसने मृतक बच्चे को उसी पीढ़े पर लिटाकर अपनी बहन के पास ले गई। जब बहन की साड़ी उस बच्चे को छू गई, तो वह जीवित हो गया।

इस घटना के बाद इस व्रत का महत्व और बढ़ गया और इसे अधिक श्रद्धा से निभाया जाने लगा।

शरद पूर्णिमा का यह व्रत न केवल आध्यात्मिक लाभ देता है बल्कि धन, समृद्धि और सुख-समृद्धि का मार्ग भी प्रशस्त करता है। यदि आप इस वर्ष इस व्रत को विधिपूर्वक करें, तो आपके जीवन में शांति, सौभाग्य और दिव्य आशीर्वाद की प्राप्ति निश्चित है।

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अहोई अष्टमी व्रत: बच्चों की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए

  अहोई अष्टमी व्रत कार्तिक कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है। यह व्रत विशेष रूप से माताएँ अपने बच्चों की दीर्घायु, सुरक्षा और खुश...