Wednesday, December 31, 2014

पुत्रदा एकादशी 01-01-2015

                                                                     पुत्रदा एकादशी
यह व्रत पौष शुक्ल पक्ष की एकादशी को किया जाता है। इस दिन भगवान विष्णु के पूजा का विधान है। इस व्रत के करने से सन्तान की प्राप्ति होती है।
कथा - किसी समय भद्रावती नगरों में सुकेतुनाम राजा राज्य करते थे। राजा तथा उनकी स्त्री शैया दानशील तथा धर्मात्मा थे। सम्पूर्ण राज्य, खजाना धन-धान्य से पूर्णहोने के बावजूद भी राजा-राजय संतानहीन होने के कारण अत्यंत दुखी थे। एक बार वे दोनों राज्य भार-मंत्रियों के ऊपर छोड़कर बनवासी हो गये तथा आत्म हत्या करने की ठान ली। लेकिन उन्हें सहसा याद आया कि आत्म हत्या के समान कोई दूसरा पाप नहीं! इसी उधेड़बुन में वे दोनों वहां आये, जहां मुनियों का आश्रम व जलाशय था। राजा-रानी मुनियों को प्रणाम कर बैठ गये। मुनियों ने योग-बल से राजा के दुःख का कारण जान लिया और आगे ऋषियों ने आशीर्वाद देते हुए ‘पुत्रदा एकादशी’ व्रत रहने को बताया।
राजा-रानी ने एकादशी व्रत रहकर विष्णु भगवान की पूजा की और पुत्र-रत्न प्राप्त किया।

Monday, April 21, 2014

भगवान परशुराम जयन्ती


मान्यवर
आप  सादर  आमंत्रित है  भगवान  परशुराम  जयन्ती  पर  जो   मई  २०१४  को बजे से बजे तक  आयोजित किया  जा रहा है  स्थानकाॅस्टीट्यूशन  क्लबविट्ठल  भाई  पटेल  हाऊसरफी मार्गनई दिल्ली११०००१   समय: दोपहर .०० बजे से रात्रि .०० बजे तक
आप से विनम्र प्रार्थना करता हूं कि आपकी उपस्थिति हमारे लिए गौरवपूर्ण एवं गरिमामय रहेगी।
आपका शुभेक्षु
दैवज्ञ पं. वेणीमाधव गोस्वामी  
(अध्यक्ष्)
09312832612

Sunday, April 06, 2014

कालरात्रि

 कालरात्रि
मां दुर्गाजी की सातवीं शक्ति कालरात्रि नाम से जानी जाती है। इनके शरीर का रंग घने अन्धकार की तरह एकदम काला है। सिरके बाल बिखरे हुए हैं। गले में विद्युत की तरह चमकने वाली माला है। इनके तीन नेत्र हैं। ये तीनों नेत्र ब्रह्माण्ड के सदृश गोल हैं। इनसे विद्युत के समान चमकीली किरणें निःसृत होती रहती हैं। इनकी नासिका के श्वास प्रश्वास से अग्नि की भयंकर ज्वालाएं निकलती रहती हैं। इनका वाहन गर्दभरा-गदहा है। ऊपर उठे हुए दाहिने हाथ की वरमुद्रा से सभी को वर प्रदान करती हैं। दाहिनी तरफ का नीचे वाला हाथ अभय मुद्रा में है। बायीं तरफ के ऊपर वाले हाथ में लोहे का कांटा तथा नीचे वाले हाथ में खड्ग (कटार) हैं।
मां कालरात्रि का सवरूप देखने में अत्यन्त भयानक है, लेकिन ये सदैव शुभ फल ही देने वाली हैं। इसी कारण इनका एक नाम ‘शुभक्करी’ भी है। अतः इनसे भक्तों को किसी प्रकार भी भयभीत अथवा आताकिंत होने की आवश्यकता नहीं है।
दुर्गा पूजा के सातवें दिन मां कालरात्रि की उपासना का विधान है। इस दिन साधक का मन ‘सहस्रार’ चक्र में स्थित रहता है। उसके लिये ब्रह्माण्ड की समस्त सिद्धियों का द्वार खुलने लगता है। इस चक्र में स्थित साधक का मन मन पूर्णतः मां कालरात्रि के स्वरूप में अवस्थित रहता है। उनके साक्षात्कार से मिलने वाले पुण्य का वह भागी हो जाता है। उसके समस्त पापों-विघ्नों का नाश हो जाता है। उसे अक्षय पुण्य-लोकों की प्राप्ति होती है।
मां कालरात्रि दुश्टों का विनाश करने वाली हैं। दानव, दैत्य, राक्षस, भूत, प्रेत आदि इनके स्मरण मात्र से ही भयभीत होकर भाग जाते हैं। ये ग्रह-बाधाओं को भी दूर करने वाली हैं। इनके उपासक को अग्नि-भय, जल-भय, जन्तु-भय, शत्रु-भय, रात्रि-भय आदि कभी नहीं होते। इनकी कृपा से वह सर्वथा भय-मुक्त हो जाता है।
मां कालरात्रि के स्वरूप-विग्रह को अपने हृदय में अवस्थित करके मनुष्य को एकनिष्ठ भाव से उनकी उपासना करनी चाहिये। यम, नियम, संयम का उसे पूर्ण पालन करना चाहिए। मन, वचन, काया की पवित्रता रखनी चाहिये। वह शुभक्करी देवी हैं। उनकी उपासना से होने वाले शुभों की गणना नहीं की जा सकती। हमें निरन्तर उनका स्मरण, ध्यान और पूजन करना चाहिए।

Friday, April 04, 2014

स्कन्दमाता

स्कन्दमाता
मां दुर्गा जी के पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। ये भगवान् स्कन्द ‘कुमार कात्तर््िाकेय’ नाम से भी जाने जाते हैं ये प्रसद्धि देवासुर-संग्राम में देवताओं के सेनापति बने थे। पुराणों में इन्हें कुमार और शक्तिधर कहकर इनकी महिमा का वर्णन किया गया है। इनका वाहन मयूर है। अतः इन्हें मयूरवाहन के नाम से भी अभिहित किया गया है।
इन्हीं भगवान् स्कन्द की माता होने के कारण मां दुर्गा जी के इस पांचवें स्वरूप को स्कन्दमाता के नाम से जाना जाता है। इनकी उपासना नवारात्रि-पूजा के पांचवें दिन की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘विशुद्ध’ चक्र में अवस्थित होता है। इनके विग्रह में भगवान् स्कदन्जी बालरूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। स्कन्दमाता रूपिणी देवी की चार भुजाएं हैं। ये दाहिनी तरफ की ऊपर वाली भुजा से भगवान् स्कन्द को गोद में पकड़े हुए हैं और दाहिनी तरफ की नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी हुई है उसमें कमल-पुष्प है। बायीं तरफ की ऊपर वाली भुजा वरमुद्रा में तथा नीचे वाली भुजा जो ऊपर की ओर उठी है उसमें भी कमल-पुष्प ली हुई हैं। इनका वर्ण पूर्णतः शुभ्र है। ये कमल के आसन पर विराजमान रहती हैं। इसी कारण से इन्हें पद्मासना देवी भी कहा जाता है। सिंह भी इनका वाहन है।
नवरात्र-पूजन के पांचवें दिन का शास्त्रों में पुष्कल महत्त्व बताया गया है। इस चक्र में अवस्थित मन वाले साधक की समस्त बाह्य क्रियाओं एवं चित्तवृत्तियों का लोप हो जाता है। वह विशुद्ध चैतन्य स्वरूप की ओर अग्रसर हो रहा होता है। उसका मन समस्त लौकिक, सांसारिक, मायिक बन्धनों से विमुक्त होकर पद्मासना मां स्कन्दमाता के स्वरूप में पूर्णतः तल्लीन होता है। इस समय साधक को पूर्ण सावधानी के साथ उपासना की ओर अग्रसर होना चाहिये। उसे अपनी समस्त ध्यान-वृत्तियों को एकाग्र रखते हुए साधना के पथ पर आगे बढ़ना चाहिये।
मां स्कन्दमाता की उपासना से भक्त की समस्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं। इस मृत्युलोक में ही उसे परम शान्ति और सुख का अनुभव होने लगता है। उसके लिये मोक्ष का द्वार स्वयमेव सुलभ हो जाता है। स्कन्दमाता की उपासना से बालरूप स्कन्द भगवान् की उपासना भी स्वयमेव हो जाती है। यह विशेषता केवल इन्हीं को प्राप्त है, अतः साधक को स्कन्दमाता की उपासना की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए। सूर्यमण्डल की अधिष्ठात्री देवी होने के कारण इनका उपासक अलौकिक तेज एवं कान्ति से सम्पन्न हो जाता है। एक अलौकिक प्रभामण्डल अदृश्यभाव से सदैव उसके चतुर्दिक् परिव्याप्त रहता है। यह प्रभामण्डल प्रतिक्षण उसके योगक्षेम का निर्वहन करता रहता है।
अतः हमें एकाग्र भाव से मन को पवित्र रखकर मां की शरण में आने का प्रयत्न करना चाहिये। इस घोर भव सागर के दुःखों से मुक्ति पाकर मोक्ष का मार्ग सुलभ बनाने का इससे उत्तम उपाय दूसरा नहीं है।

Tuesday, April 01, 2014

Bharamcharini

 ब्रह्मचारिणी
मां दुर्गा की नौ शक्तियों का दूसरा स्वरूप ब्रह्मचारिणी का है। यहां ‘ब्रह्मा’ शब्द का अर्थ तपस्या है। ब्रह्माचारिणी अर्थात् तप की चारिणी-तप का आचरण करने वाली। कहा भी है- वेदस्तत्त्वं तपो ब्रह्म-वेद, तत्त्व औरा तप ‘ब्रह्म’ शब्द के अर्थ हैं। ब्रह्मचारिणी देवी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय एवं अत्यन्त भव्य है। इनके दाहिने हाथ में जप की माला एवं बायें हाथ में कमण्डल रहता है।
अपने पूर्वजन्म में जब ये हिमालय के घर पुत्री-रूप में उत्पन्न हुई थीं तब नारद के उपदेश से इन्होंने भगवान् शंकर जी को पति-रूप में प्राप्त करने के लिये अत्यन्त कठिन तपस्या की थी। इसी दुष्कर तपस्या के कारण इन्हें तपश्चारिणी अर्थात् ब्रह्मचारिणी नाम से अभिहित किया गया। एक हजार वर्ष उन्होंने केवल फल-मूल खाकर व्यतीत किये थे। सौ वर्षों तक केवल शाक पर निर्वाह किया था। कुछ दिनों तक कठिन उपवास रखते हुए खुले आकाश के नीचे वर्षा और धूप के भयानक कष्ट सहे। इस कठिन तपस्या के पश्चात् तीन हजार वर्षों तक केवल जमीन पर टूटकर गिरे हुए बेलपत्रों को खाकर वह अहर्निश भगवान् शंकर की आराधना करती रहीं। इसके बाद उन्होंने सूखे बेलपत्रों को भी खाना छोड़ दिया। कई हजार वर्षों तक वह निर्जल और निराहार तपस्या करती रहीं। पत्तों को भी खाना छोड़ देने के कारण उनका एक नाम ‘अपर्णा’ भी पड़ गया।
कई हजार वर्षों की इस कठिन तपस्या के कारण ब्रह्मचारिणी देवी का वह पूर्वजन्म का शरीर एकदम क्षीण हो उठा। वह अत्यन्त की कृशकाय हो गयी थीं। उनकी यह दशा देखकर उनकी  माता मेना अत्यन्त दुःखित हो उठीं। उन्होंने उन्हें उस कठिन तपस्या से विरत करने के लिये आवाज दी ‘उ मा’, अरे ! नहीं, ओ! नहीं! नहीं! तबसे देवी ब्रह्मचारिणी का पूर्वजन्म का एक नाम ‘उमा’ भी पड़ गया था।
उनकी इस तपस्या से तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। देवता, ऋषि, सिद्धगण, मुनि सभी ब्रह्मचारिणी देवी की इस तपस्या को अभूतपूर्व पुण्यकृत्य बताते हुए उनकी सराहना करने लगे। अन्त में पितामह ब्रह्मा जी ने आकाशवाणी के द्वारा उन्हें सम्बोधित करते हुए प्रसन्न स्वरों में कहा- ‘हे देवि! आज तक किसी ने ऐसी कठोर तपस्या नहीं की थी। ऐसी तपस्या तुम्हीं से सम्भव थी। तुम्हारे इस अलौकिक कृत्य की चतुर्दिक् सराहना हो रही है। तुम्हारी मनोकामना सर्वतोभावेन परिपूर्ण होगी। भगवान् चन्द्रमौलि शिवजी तुम्हे पतिरूप में प्राप्त होंगे। अब तुम तपस्या से विरत होकर घर लौट जाओ। शीघ्र ही तुम्हारे पिता तुम्हे बुलाने आ रहे हैं।’
मां दुर्गा जी का यह दूसरा स्वरूप भक्तों और सिद्धों को अनन्तफल देने वाला है। इनकी उपासना से मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार, संयम की वृद्धि होती है। जीवन के कठिन
संघर्षों में भी उसका मन कत्र्तव्य-पथ से विचिलित नहीं होता। मां ब्रह्मचारिणी देवी की कृपा से उसे सर्वत्र सिद्धि और विजय की प्राप्ति होती है। दुर्गा पूजा के दूसरे दिन इन्हीं के स्वरूप की उपासना की जाती है। इस दिन साधक का मन ‘स्वाधिष्ठान’ चक्र में स्थित होता है। इस चक्र में अवस्थित मन वाला योगी उनकी कृपा और भक्ति प्राप्त करता है।

Monday, March 31, 2014

Shailputri

शैलपुत्री
मां दुर्गा अपने पहले स्वरूप में ‘शैलपुत्री’ के नाम से जानी जाती हैं। पर्वतराज हिमालय के यहां पुत्री के रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका यह ‘शैलपुत्री’ नाम पड़ा था। वृषभ-स्थिता इन माताजी के दाहिने हाथ में त्रिशूल और बायें हाथ में कमल-पुष्प सुशोभित है। यही नौ दुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं।
अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं। तब इनका नाम ‘सती’ था। इनका विवाह भगवान् शंकरजी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने एक बहुत बड़ा यज्ञ किया इसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिये आमन्त्रित किया। किन्तु शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में आमन्त्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि हमारे पिता एक अत्यन्त विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहां जाने के लिये उनका मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने भगवान शंकरजी को बतायी। सारी बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा- ”प्रजापति दक्ष किसी कारण वश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को आमन्त्रित किया है। उनके यज्ञ-भाग भी उन्हें समर्पित किये हैं, किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। कोई सूचना तक नहीं भेजी है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार भी उचित नहीं होगा।“ शंकर जी के इस उपदेश से सती का प्रबोध नहीं हुआ। पिता का यज्ञ देखने, वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर भगवान् शंकर जी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे दी है।
सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और पे्रम के साथ बातचीत नहीं कर रहा है। सारे लोग मुंह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों की बातों में व्यंग्य और उपाहस के भाव भरे हुए थे। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुंचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहां चतुर्दिक भगवान् शंकर जी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से सन्तप्त हो उठा। उन्होंने सोचा भगवान शंकर जी की बात न मान, यहां आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।
वह अपने पति भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकी। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्निद्वारा जलाकर भस्म कर दिया।  वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया।
सती ने योर्गािग्न द्वारा अपने शारीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वह ‘‘शैलपुत्री’ नाम से विख्यात हुईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं। उपनिषद की एक कथा के अनुसार इन्हीं ने हैमवती स्वरूप से देवताओं का गर्व-भंजन किया था।
‘शैलपुत्री’ देवी का विवाह भी शंकरजी से ही हुआ। पूर्वजनम की भांति इस जन्म में भी वह शिवजी की अद्र्धांगनी बनीं। नौ दुर्गाओं में प्रथम शैलपुत्री दुर्गा का महत्व और शक्तियां अनन्त हैं। नवरात्र पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है। इस प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारम्भ होता है।

Katha For Navratra Durga Pujan


कथा
प्राचीन काल में एक सुरथ नामक राजा थे। इनकी उदासीनता से लाभ उठाकर शत्रुओं ने इन पर चढ़ाई कर दी। परिणाम यह हुआ कि मंत्री लोग राज के साथ विश्वासघात करके शत्रु पक्ष से मिल गये। इस प्रकार राजा की पराजय हुई, और वे दुःखी तथा निराश होकर तपस्वी वेष में वन में निवास करने लगे। उसी वन में उन्हें समाधि नाम का वणिक मिला, जो अपने स्त्री पुत्रों के दुव्र्यवहार से अपमानित होकर वहां निवास करता था दोनों में परस्पर परिचय हुआ। तदनन्तर वे महर्षि मेध के आश्रम में पहुंचे। महामुनि मेधा के द्वारा आने का कारण पूछने पर दोनों ने बताया कि, यद्यपि हम दोनों स्वजनों से अत्यन्त अपमानित तथा तिरस्कृत हैं फिर भी उनके प्रति मोह नहीं छूटता, इसका क्या कारण है?
महर्षि मेधा ने यह उपदेश दिया कि मन शक्ति के आधीन होता है। आदि शक्ति भगवती के दो रूप हैं- विद्यर और अविद्या। प्रथम ज्ञान स्वरूप है तथा अज्ञान स्वरूपा। अविद्या (अज्ञान) के कारण रूप में उपासना करते हैं, उन्हें वे विद्या स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती हैं।
इतना सुनकर राजा सुरथ ने प्रश्न किया- है महर्षि देवी कौन हैं उनका जन्म कैसे हुआ।
महामुनि बोले-राजन्! आप जिस देवी के विषय में प्रश्न कर रहे हैं, वह नित्य-स्वरूपा तथा विश्श्वव्यापिनी हैं उसके आविर्भाव के कई प्रकार हैं, जिसे मैं बताता हैं, ‘कल्पांत के समय महा प्रलय होती है उसी समय जब विष्णु भगवान क्षीर सागर में अनन्त शैय्या पर शयन की रहे थे तभी उनके दोनों कर्ण कुहरों से दो दैत्य मधु तथा कैटभ उत्पन्न हुए धरती पर चरण रखते ही वे दोनों विष्णु नाभि-कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा को मारने दौड़े। उनके इस भयानक रूप को देखकर ब्रह्मा जी ने अनुमान लगाया कि विष्णु के सिवा मेरा कोई शरण नहीं। किन्तु विडम्बना यह थी कि भगवान इस अवसर पर सो रहे थे। तब विष्णु भगवान को जगाने हेतु उनके नयनों में निवास करने वाली योग निद्रा का स्तवन किया। परिणामतः तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान के नेत्र, नासिका, मुख तथा हृदय से निःसृत होकर अराधक (ब्रह्मा) के सामने खड़ी हो गई। योगनिद्रा के निकलते ही भगवान विष्णु जाग उठे। भगवान् विष्णु तथा उन राक्षसों में 5 हजार वर्षों तक यु़़़़़़़़़द्ध हुआ। अंत में दोनों राक्षसों ने भगवान् की वीरता से संतुष्ट होकर वर मांगने को कहा। भगवान् बोले -यदि तुम दोनों की मृत्यु मेरे ही हाथों हो!“ एवमस्तु!“ कहकर उन राक्षसों ने दानशीलता का परिचय दिया। अन्त में वे दोनों भगवान् विष्णु द्वारा मारे गये।
ऋषि बोले-अब बार देवताओं के स्वामी इन्द्र तथा दैत्यों के स्वामी महिषासुर से सौ वर्षों तक घनघोर संग्राम हुआ। इस युद्ध में देवराज इन्द्र की पराजय हुई और महिषासुर इन्द्रलोक का राजा बन बैठा। तब हारे हुये देवगण ब्रह्मा जी को आगे करके भगवान् शंकर तथा विष्णु के पास गये। देवताओं की इस निराशापूर्ण वाणी को सुनकर विष्णु तथा शंकर को महान क्रोध आया। भगवान् विष्णु के मुख तथा ब्रह्मा, शिव, इन्द्र आदि के शरीर से एक पूंजीभूत तेज निकला, जिससे दिशायें जलने लगीं। अन्त में यही तेज एक देवी के रूप में परिणित हो गया।
देवी ने सभी देवताओं से आयुध, शक्ति तथा आभूषण प्राप्त कर उच्च-स्वर से अट्टहासयुक्त गगनभेदी गर्जना की। जिससे पृथ्वी, पर्वत आदि डोलने लगे तथा संसार में हलचल मच गई। क्रोधित महिषासुर दैत्य सेना का व्यूह बनाकर इस सिंहनाद की ओर दौड़ा। आगे देखता हे कि देवी की प्रभा से तीनों लोक आलोकित हैं। महिषासुर अपना समस्त बल, छल-छद्म लगाकर हार गया परन्तु देवी के सामने उसकी एक न चली। अन्त में वह देवी के हाथों मारा गया। आगे चलकर यही देवी शुम्भ तथा निशुम्भ नामक असुरों का वध करने के लिए गौरी देवी के शरीर से उत्पन्न हुईं।?
इन सब उपाख्यानों को सुनाकर मेधा ऋषि ने राजा सुरथ तथा वणिक् से देवी स्तवन की विधिवत् व्याख्या की जिसके प्रभाव से दोनों एक नदी तट पर जाकर तपस्या में लीन हो गये। तीन वर्षोपरान्त दुर्गा जी ने प्रकट होकर उन दोनों को आशीर्वाद दिया। जिससे वणिक् सांसारिक मोह से मुक्त होकर आत्म-चिन्तन में लग गया तथा राजा ने शत्रुओं को जीतकर अपना खोया राज वैभव पुनः प्राप्त कर लिया।

Navratra Durga Pujan 31-03-2014

यह चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से लेकर राम नवमी तक चलता है। इन दिनों भगवती दुर्गा तथा कन्या पूजन का बड़ा महत्व है। प्रतिपदा के ही दिन से घट-स्थापना तथा जौ बोने की क्रिया भक्तों द्वारा सम्पादित की जाती है। ‘दुर्गा सप्तशती’ के पाठ का भी विधान है। नौ दिन पाठ के अनन्तर हवन तथा ब्राह्मण भोजन कराना वांछनीय है। 

कल्कि जयंती 2025: भगवान कल्कि के आगमन की प्रतीक्षा का पावन पर्व

  हर वर्ष सावन मास के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को बड़े श्रद्धा और भक्ति भाव से कल्कि जयंती मनाई जाती है। यह दिन भगवान विष्णु के दसवें और अ...